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चतुर्थ अंक
 

से संगठित है। तुम चलोगी युद्ध देखने? सिन्धु-तट के स्कन्धावार में रहना।

कार्ने॰—चलूँगी।

सिल्यू॰—अच्छा तो प्रस्तुत रहना। आम्भीक—तक्षशिला का राजा—इस युद्ध में तटस्थ रहेगा, आज उसका पत्र आया है। और राक्षस कहता था कि चाणक्य—चन्द्रगुप्त का मंत्री—उससे क्रुद्ध हो कर कहीं चला गया है। पंचनद में चन्द्रगुप्त का कोई सहायक नहीं! बेटी, सिकन्दर से बड़ा साम्राज्य—उससे बड़ी विजय! कितना उज्ज्वल भविष्य है।

कार्ने॰—हाँ पिताजी।

सिल्यू॰—हाँ पिताजी।—उल्लास की रेखा भी नहीं—इतनी उदासी! तू पढ़ना छोड़ दे! मैं कहता हूँ कि तू दार्शनिक होती जा रही है—ग्रीक-रत्न!

कार्ने॰—वही तो कह रही हूँ। आप ही तो कभी पढ़ने के लिए कहते हैं, कभी छोड़ने के लिए।

सिल्यू॰—तब ठीक है, मैं ही भूल कर रहा हूँ।

[प्रस्थान]