पृष्ठ:चन्द्रगुप्त मौर्य्य.pdf/२०३

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पथ में चन्द्रगुप्त और सैनिक

चन्द्र॰—पंचनद का नायक कहाँ है?

एक सैनिक—वह आ रहे हैं, देव!

[नायक का प्रवेश]

नायक—जय हो देव!

चन्द्र॰—सिंहरण कहाँ है?

[नायक विनम्र होकर पत्र देता है, पत्र पढ़ कर उसे फाड़ते हुए]

चन्द्र॰—हूँ! सिंहरण इस प्रतीक्षा में है कि कोई बलाधिकृत जाय तो वे अपना अधिकार सौंप दें। नायक! तुम खड्‌ग पकड़ सकते हो, और उसे हाथ में लिए सत्य से विचलित तो नहीं हो सकते? बोलो, चन्द्रगुप्त के नाम से प्राण दे सकते हो? मैंने प्राण देनेवाले वीरों को देखा है। चन्द्रगुप्त युद्ध करना जानता है। और विश्वास रक्खो, उसके नाम का जयघोष विजयलक्ष्मी का मंगल-गान है। आज से मैं ही बलाधिकृत हूँ, मैं आज सम्राट नहीं, सैनिक हूँ। चिन्ता क्या? सिंहरण और गुरुदेव न साथ दें, डर क्या! सैनिकों! सुन लो, आज से मैं केवल सेनापति हूँ,और कुछ नहीं। जाओ, यह लो मुद्रा और सिंहरण को छुट्टी दो। कह देना कि 'तुम दूर खड़े होकर देख लो सिंहरण! चन्द्रगुप्त कायर नहीं है।' जाओ।

[नायक जाने लगता है]

चन्द्र॰—ठहरो! आम्भीक की क्या लीला है?

नायक—आम्भीक ने यवनों से कहा है कि ग्रीक-सेना मेरे राज्य से जा सकती है, परन्तु युद्ध के लिए सैनिक न दूँगा, क्योंकि मैं उन पर स्वयं विश्वास नहीं करता।

चन्द्र॰—और वह कर भी क्या सकता था! कायर! अच्छा जाओ, देखो, वितस्ता के उस पार हम लोगों को शीघ्र पहुँचना चाहिए। तुम सैन्य लेकर मुझसे वहीं मिलो।