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चतुर्थ अंक
 

हूँ, तो भी क्षत्रिय हूँ, रणदान जो भी माँगेगा, उसे दूँगा। युद्ध होना अनिवार्य है।

कार्ने॰—तब मैं कुछ नहीं कहती।

सिल्यू॰—(प्यार से)—तू रूठ गयी बेटी। भला अपनी कन्या के सम्मान की रक्षा करने वाले का मैं वध करूँगा!

सुवा॰—फिलिप्स को द्वंद्व-युद्ध में सम्राट्‌ चन्द्रगुप्त ने मार डाला। सुना था, इन लोगों का कोई व्यक्तिगत विरोध...

सिल्यू॰—चुप रहो, तुम!—(कार्नेलिया से)—बेटी, मैं चन्द्रगुप्त को क्षत्रप बना दूँगा, बदला चुक जायगा। मैं हत्यारा नहीं, विजेता सिल्यूकस हूँ।

[प्रस्थान]

कार्ने—(दीर्घ निःश्वास लेकर)—रात अधिक हो गई, चलो सो रहें! सुवासिनी, तुम कुछ गाना जानती हो?

सुवा॰—जानती थी, भूल गयी हूँ। कोई वाद्य-यन्त्र तो आप न बजाती होंगी?—(आकाश की ओर देखकर)—रजनी कितने रहस्यों की रानी है—राजकुमारी!

कार्ने॰—रजनी! मेरी स्वप्न-सहचरी!

सुवा॰—(गाने लगती है)—

सखे! वह प्रेममयी रजनी।
आँखों में स्वप्न बनी,
सखे! वह प्रेममयी रजनी।

कोमल द्रुमदल निष्कम्प रहे,
ठिठका-सा चन्द्र खड़ा।
माधव सुमनों में गूँथ रहा,
तारों की किरन-अनी।


सखे! वह प्रेममयी रजनी।