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प्रथम अंक
 


यवन—क्या यह वही मानचित्र नहीं है, जिसे इस स्त्री ने उद्भाण्ड में बनाना चाहा था।

अलका—परन्तु यह तुम्हें मिल नहीं सकता। यदि तुम सीधे यहाँ से न टलोगे तो शान्ति-रक्षकों को बुलाऊँगी।

यवन—तब तो मेरा उपकार होगा, क्योंकि इस अँगूठी को देखकर मेरी ही सहायता करेंगे—(अंगूठी दिखाता है)

अलका—(देखकर सिर पकड़ लेती है)—ओह!

यवन—(हँसता हुआ)—अब ठीक पथ पर आ गई होगी बुद्धि। लाओ, मानचित्र मुझे दे दो।

[अलका निस्सहाय इधर-उधर देखती है। सिंहरण का प्रवेश]

सिंहरण—(चौंककर)—है.....कौन....राजकुमारी! और यह यवन!

अलका—महावीर! स्त्री की मर्यादा को न समझने वाले इस यवन को तुम समझा दो कि यह चला जाय।

सिंहरण—यवन, क्या तुम्हारे देश की सभ्यता तुम्हें स्त्रियों का सम्मान करना नहीं सिखाती? क्या सचमुच तुम बर्बर हो?

यवन—मेरी उस सभ्यता ही ने मुझे रोक लिया है, नहीं तो मेरा यह कर्तव्य था कि मैं उस मानचित्र को किसी भी पुरुष के हाथ में होने से उसे जैसे बनता, ले ही लेता।

सिंहरण—तुम बडे़ प्रगल्भ हो यवन! क्या तुम्हें भय नहीं कि तुम एक दूसरे राज्य में ऐसा आचरण करके अपनी मृत्यु बुला रहे हो?

यवन—उसे आमन्त्रण देने के लिए ही उतनी दूर से आया हूँ।

सिंहरण—राजकुमारी। यह मानचित्र मुझे देकर आप निरापद हो जायें, फिर मैं देख लूँगा।

अलका—(मानचित्र देती हुई)—तुम्हारे ही लिए तो यह मँगाया गया था।

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