पृष्ठ:चिंतामणि.pdf/६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
६६
चिन्तामणि

उँगली का सहारा पानेवाले बाँह पकड़कर खींचने लगें; दूसरी ओर बड़ों का बहुत कुछ बड़प्पन निकल जाय, गहरे-गहरे साथी बहरे हो जायँ या सूखा जवाब देने लगें, जो हाथ सहारा देने के लिए बढ़ते हैं वे ढकेलने के लिए बढ़ने लगें—फिर तो भलमनसाहत का भार उठाने वाले इतने कम रह जायँ कि वे उसे लेकर चल ही न सकें।

सङ्कोच इस बात के ध्यान या आशङ्का से होता है कि जो कुछ हम करने जा रहे हैं वह किसी को अप्रिय या वेढङ्गा तो न लगेगा, उससे हमारी दुःशीलता या धृष्टता तो न प्रकट होगी। इस बात का जिन्हें कुछ भी ध्यान नहीं रहता उनका दस आदमियों का साथ नहीं निभ सकता और जिन्हें अत्यन्त अधिक ध्यान रहता है उनके भी कामों में बाधा पड़ती है। मनोभावों की परस्पर अनुकूल स्थिति होने से ही संसार के व्यवहार चलते हैं। यदि एक इस बात का ध्यान रखता है कि दूसरे को कोई बात खटके न, बुरी न लगे और दूसरा उसकी हानि, कठिनाई आदि का कुछ भी ध्यान नहीं रखता है तो यह स्थिति व्यवहार-बाधक है। ऐसी स्थिति में भी सङ्कोच करनेवालों के काम देर से निकलते हैं या निकलते ही नहीं। पर इससे यह न समझना चाहिए कि जितने 'अपने सङ्कोची स्वभाव' की शिकायत के बहाने अपनी तारीफ़ किया करते हैं वे सब अपनी भलमनसाहत से दुःख भोगा करते हैं। ऐसे लोगों में सङ्कोच का तो नाम मात्र न समझना चाहिए। जिन्हें यह कहने में सङ्कोच नहीं कि 'हम बड़े सङ्कोची हैं।' उनमें सङ्कोच कहाँ? उन्हें यह कहते देर नहीं कि 'अमुक बड़ा निर्लज्ज है, बड़ा दुष्ट है।'

लज्जा या सङ्कोच यदि बहुत अधिक होता है तो उसे छुड़ाने की फिक्र की जाती है, क्योंकि उससे कभी-कभी आवश्यकता से अधिक कष्ट उठाना पड़ता है तथा व्यवहार तो व्यवहार शिष्टाचार तक का निर्वाह कठिन हो जाता है। सुख से रहने का सीधा रास्ता बतलाने वाले ने तो 'आहार और व्यवहार में' लज्जा का एकदम त्याग ही विधेय ठहराया है। पर मुझे तो यहाँ यह देखना है कि बात-बात में लज्जा करनेवालों की मनोवृत्ति कैसी होती है, उनके चित्त में समाई क्या