पृष्ठ:चिंतामणि.pdf/७०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
६७
लज्जा और ग्लानि

रहती है। काई क्रिया या व्यापार किसी को बुरा, वेढंगा या अप्रिय न लगे यह ध्यान तो निर्दिष्ट और स्पष्ट होने के कारण कुछ विशिष्ट व्यापारों का ही अवरोध करता है क्योंकि जो-जो काम लोगों को बुरे बेढंगे या अप्रिय लगा करते हैं उनकी एक छोटी या बड़ी सूची सबके अनुभव में रहती है। पर जो यही अनिश्चित भावना रखकर सङ्कुचित होते है कि कोई बात 'लोगों को न जाने कैसी लगे, उन्हें न जाने कितनी बातों में सङ्कोच या लज्जा हुआ करती है। उन्हें बात- बात में खटका होता है कि उनका बैठना न जाने कैसा मालूम होता हो, बोलना न जाने कैसा मालूम होता हो, हाथ-पैर हिलाना न जाने कैसा मालूम होता हो, ताकना न जाने कैसा मालूम होता हो, यहाँ तक कि उनके ऐसे आदमी का होना—वे कैसे हैं चाहे वे कुछ भी न जानते हों—न जाने कैसा मालूम होता हो। न जाने कैसे लगने का डर उन्हें लोगों के लगाव से दूर-दूर रखता है। यह आशंका इतनी अव्यक्त होती है, लज्जा और इसके बीच का अन्तर इतना क्षणिक होता है, कि साधारणतः इसका लज्जा से अलग अनुभव नहीं होता।

कुछ लोगो के मुँह से लज्जा या सङ्कोच के मारे आदर-सत्कार के आवश्यक वचन मुँह से नहीं निकलते, बहुत से लड़कों को प्रणाम करने में लज्जा मालूम होती है। ऐसी लज्जा किसी काम की नहीं समझी जाती। बच्चों की अपनी तुच्छता, बुराई का, बेढ़ंगेपन की भावना बहुत कम होती है। वे अपनी क्रियाओं में स्वभावतः स्वच्छन्द होते हैं। पर विशेष स्थिति में पड़कर वे इतने भीरु और लज्जालु हो जाते है कि नये आदमियों के सामने नहीं आते, लाख पूछने पर कोई बात मुँह से नहीं निकालते। ऐसी दशा अधिकतर उन बच्चों की हो जाती है जो बात-बात पर, उठते-बैठते, हिलते-डोलते डाँटे, धिक्कारे या चिढ़ाए जाते है। लोग अकसर प्यार से बच्चो को किसी भद्दे, बेढ़ंगे या बुरे आदमी का ध्यान कराकर उन्हें चिढ़ाते है कि 'तुम वही हो'। इस प्रकार उन्हे सहमने, सङ्कोच करने, लज्जित होने आदि का अभ्यास कराया जाता है जो बढ़ते-बढ़ते बहुत बढ़ जाता है।