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चिन्तामणि

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१०६ चिन्तामणि अभिव्यञ्जनावाद के अनुसार ही यदि कविता बनने लगे तो उसमें विलक्षण-विलक्षण वाक्यों के ढेर के सिवा और कुछ न होना चाहिएन विचारधारा, न भावो की रसधारा । पर इस प्रकार की ऊटपटॉग कविता योरप में भी न बनी है, न बनती है। | योरप के समीक्षा-क्षेत्र में उठते रहनेवाले वादों के सम्बन्ध में यह बात पकी समझनी चाहिए कि वे एकात्नदर्शी होते हैं, वे या तो प्रतिवत्तेन ( Rcaction ) के रूप में अथवा प्रचलित मतो में कुछ अपनी विलक्षणता या नवीनता दिखाने की झोक में, जोर-शोर के साथ प्रकाशित किए जाते हैं। इससे उनमे अत्युक्ति की मात्रा बहुत अधिक होती है। वे प्रायः अव्याप्ति या अतिव्याप्ति-ग्रस्त होते है । अपनी कसौटी पर बिना उनकी कड़ी परीक्षा किए उनका राग अलापना अन्धेपन का प्रचार करना है । ‘प्रभाववाद' ([impresstori1sna) और अभिव्यञ्जनावाद' ( Expressionism ) दोनों की एकाङ्गदृशिता ऊपर के विवरणो से स्पष्ट है। यहीं स्वरूप वहाँ के और वाद का भी समझिए ।। हमारे यहाँ के पुराने ध्वनिवादियों के समान आधुनिक ‘अभिव्यञ्जनावादी' भी भाव-व्यञ्जना और वस्तु-व्यञ्जना दोनो मे काव्यतत्त्व मानते हैं। उनके निकट अनूठे ढंग से की हुई वस्तु-व्यञ्जना भी काव्य ही है । इम सम्बन्ध में हमारा यही वक्तव्य है कि अनूठी से अनूठी उक्त काव्य तभी हो सकती है जव कि उसका सम्बन्ध-कुछ दूर का सही-हृदय के किसी भाव या वृत्ति से होगा । मान लीजिए कि अनूठे भंग्यन्तर से कथित किसी लक्षणापूर्ण उक्ति मे सौन्दर्य का वर्णन है । उस उक्ति में चाहे कोई भाव सीधे-सीधे व्यंग्य न हो, पर उसकी तह मे सौन्दर्य को ऐसे अनूठे ढंग से कहने की प्रेरणा करनेवाला रति-भावे या प्रेम छिपा हुआ है। जिस वस्तु की सुन्दरता के वर्णन में हम प्रवृत्त होगे वह हमारे रति-भाव का आलम्चन होगी ।