पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/११६

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काव्य में रहस्यवाद १०६ है। यह नकल—जैसे और सब नक़लें-बेंगला में शुरू हुई । अतः हिन्दीवालों में कुछ बेचारे तो बङ्ग-पदावली के अवतरण से ही सन्तुष्ट रहते हैं, और कुछ--जिन्हे अँगरेजी का भी थोड़ा-बहुत परिचय रहता है--सीधे अँगरेजी से, जहाँ से बङ्गाली लेते है, लाक्षणिक पदावली उठाया करते हैं। यही कारण है कि उनकी रचनाओं में उस अन्विति (Unity ) का सर्वथा अभाव रहता है, जिसके विना कला की कोई कृति खड़ी ही नहीं हो सकती। इधर-उधर से वटोरे वाक्यो का एक असंश्लिष्ट और असम्बद्ध ढेर सा लगा दिखाई पड़ता है। बात यह है कि अपनी किसी अनुभूति, भावना या तथ्य की व्यञ्जनी के लिए अपने उद्भावित वाक्य ही एक से समन्वित हो सकते हैं। भिन्न-भिन्न देशो की प्रवृत्ति की पहचान यदि हम काव्य के भाव और विभाव दो पक्ष करके करते हैं तो बड़ी सुगमता हो जाती है। -भाव से अभिप्राय संवेदना के स्वरूप की व्यञ्जना से है, विभाव से अभिप्राय उन वस्तुओं या विषयो के वर्णन से है जिनके प्रति किसी प्रकार का भाव या संवेदना होती है। भारतीय साहित्य में दोनो पक्षी का सम-विधान पाया जाता है । वन, पर्वत, नदी, निर्झर, मनुष्य, पशु, पक्षी इत्यादि जगत् की नाना वस्तुओं का वर्णन आलम्बन और उद्दीपन दोनो की दृष्टि से होता रहा है। प्रबन्ध-काव्यों में बहुत से प्राकृतिक वर्णन आलम्बन-रूप में ही हैं । कुमारसम्भव के आरम्भ का हिमालय-वर्णन और मेघदूत के पूर्वमेघ का नाना-प्रदेश-वर्णन उद्दीपन की दृष्टि से नहीं कहा जा सकता । इन वर्णनों में कवि ही आश्रय है। जो प्राकृतिक वस्तुओं के प्रति अपने अनुराग के कारण उनका रूप विवृत करके अपने सामने भी रखता है और पाठको के भी । जैसा पहले कहा जा चुका है केवल आलम्बन का वर्णन भी रसात्मक होता है । नख शिख-वर्णनो मे आलम्बन के रूप का ही वर्णन रहता है पर वे रसात्मक होते हैं। विभाव के समान भाव-पक्ष का भी पूरा विधान