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चिन्तामणि

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११० चिन्तामणि हमारे यहाँ मिलता है । उक्ति, चेष्टा और शरीर-धर्म तीन प्रकार के अनुभावों द्वारा भावों की व्यञ्जना होती आई है। फारस की शायरी भाव-पक्ष-प्रधान है। उसमें विभाव-पक्ष का विधान नहीं या नहीं के बराबर हुयी । भाव-पक्ष में भी केवल रतिभाव का ही सन्यक ग्रहण पाया जाता है। इसी के अलौकिक उत्कर्ष की व्यञ्जना अलग-अलग एक-एक पद्य की गैठी हुई उक्ति में होती है। वेदना की विवृति की चाल फारसी और उर्दू की शायरी में बहुत अधिक है। विभाव और भाव के सम्बन्ध को स्पष्टीकरण न होने से--- इस बात का ध्यान न होने से कि मन में लाए हुए रूप किस प्रकार रस में सहायक या वाधक होते है–वेदना की यह विवृति कभी-कभी बड़े बीभत्स दृश्य सामने लाती है। आवले फूटना, मवाद बहना, कलेजा चिडना, खून के कतरे टपकना, कवाब की तरह इधर-उधर भुनना----वेदना का इस प्रकार का ब्योरा शृङ्गार का पोपक नहीं हो। सकता । खेद है कि उर्दू की देखादेखी वेदना की ऐसी विवृति की नक़ल हिन्दी की कविताओं में भी कुछ-कुछ हुई है और अब भी कुछ नए ढंग पर होती है । संस्कृत के कवियो वेदना की विवृति भवभूति में , ही सबसे अधिक पाई जाती है; पर वह भारतीय काव्य-शिष्टता की मर्यादा के भीतर है । वेदना की अधिक विवृति हम काव्य-शिष्टता के विरुद्ध समझते हैं। हमें तो वेदना का अधिक व्योरा पढ़ने पर ऐसा ही जान पड़ता है जैसे कोई भारी रोगी किसी वैद्य के सामने अपने पेट के भीतर की शिकायतें बता रहा हो । प्रेम को व्याधि के रूप में देखने की अपेक्षा हम संजीवनी शक्ति के रूप में देखना अधिक पसंद करते हैं। अश्रु, स्वेद आदि-का उल्लेख हमारे काव्य में भी हुआ है, पर जमीन से आसमान तक उनकी गंदी नदी नहीं बहाई गई है। जैसे अपनी प्रकृति का, अपने शरीर-धर्मों का, बहुत अधिक वर्णन बातचीत