पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/११८

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काव्य में रहस्यवाद की सभ्यता के विरुद्ध समझा जाता है वैसे ही अव काव्य की शिष्टता के विरुद्ध समझा जाना चाहिए। हम विभाव-पक्ष को कविता में प्रधान स्थान देते है। विभाव से अभिप्राय लक्षण-ग्रन्थों में गिनाए हुए भिन्न-भिन्न रसो के आलम्वन मात्र से नहीं है, यह पहले सूचित किया जा चुका है। जगत् की जो वस्तुएँ, जो व्यापार या प्रसङ्ग हमारे हृदय में किसी भाव का सञ्चार कर सके। उन सबका वर्णन आलम्बन का ही वर्णन माना जाना चाहिए। विश्व की अनन्तता के भीतर, मनुष्यजाति के ज्ञान-प्रसार के बीच, ऐसे वस्तु-व्यापार-योग और ऐसे प्रसङ्ग भी हमारी पहुँच के हिसाब से अनन्त ही हैं। जिस मर्मस्पर्शणी वस्तु-व्यापार-योजना का ज्ञानेन्द्रियो द्वारा या कल्पना के सहारे हमने साक्षात्कार किया हो उसे अपना प्रभाव उत्पन्न करने के लिए औरों तक ठीक-ठीक पहुँचाकर यदि हम अलग हो जाये, तो भी कवि-कर्म कर चुके । यदि लोक के मर्मस्थली की पहचान हममे होगी तो हमारी उपस्थित की हुई योजना सहृदय मार्च को भावमग्न करेगी । यदि उस योजना में लोक-ह्रदय को स्पर्श करने की क्षमता न होगी, तो भावानुभूति को हमारा सारा प्रदर्शन भॉड़ो की नक़ल सा होगा । भाव-प्रधान कविता मैं---ऐसी कविता में जिसमें संवेदना की विवृति ही रहती है-आलम्बन का आक्षेप पाठक के ऊपर छोड़ दिया जाता है। विभाव-प्रधान कविता मे-ऐसी कविता में जिससे आलम्बन का ही विस्तृत रमणीय चित्रण रहता है--संवेदना पाठक के ऊपर छोड़ दी जाती है। अपनी अनुभूति या संवेदना का लंबा-चौड़ा ब्योरा पेश करने की अपेक्षा उन तथ्यों या वस्तुओं को पाठक की कल्पना मै ठीक-ठीक पहुँचा देना जिन्होंने वह अनुभूति या संवेदना जगाई है, कवि के लिए हम अधिक आवश्यक समझते हैं। सहृदय या भावुक पाठक अपनी अनुभूति का पथ बहुत कुछ आप से आप निकाल लेते हैं ।