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चिन्तामणि

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१२४ चिन्तामणि है, तो इसका उत्तर यह है कि ईश्वर को ज्ञेय बनाकर ही उसकी उपासना और भक्ति का प्रारम्भ हुआ है । ईश्वर को प्रेमपूर्ण, दयालु पिता या स्वामी के रूप में अन्तःकरण के सामने रखकर ही प्रम या भक्ति का चरम लिम्बन मनुष्यजाति ने खड़ा किया है। रही मूर्त भावना, वह भी इतने गुणों का आरोप हो जाने के कारण प्रेमानुभूति के समय भक्त के मन में कुछ न कुछ हो ही जाती है । तात्पर्य यह कि भाव के पूर्ण परिपाक के लिए आलम्बन की निर्दिष्ट भावना आवश्यक है। अभिव्यक्ति को ही काव्यदृष्टि के भीतर माननेवाले विशुद्ध कवि और साम्प्रदायिक या रहस्यवादी कवि की मनोवृत्ति में यही भेद है। कि एक बड़ी सचाई के साथ जिस पर उसका भाव टिका होगा उसे स्वीकार करेगा और दूसरा उसे स्वीकार न करके, इधर-उधर ताककॉक करेगा । वह वेदान्तियों के प्रतिबिम्ब चाद' का सहारा लेकर कहेगा कि ये सत्र रूप तो छाया है ; हम जो प्रेम प्रकट करते हैं उसे इस छाया पर न समझो, जिसकी यह छाया है उस पर समझो । शायद वह यह दृष्टान्त भी दे कि जैसे पूर्वराग में चित्र देखकर ही अनुराग उत्पन्न होता है, पर उस चित्र के प्रति जो अनुराग प्रकट किया जाता है। वह उस चित्र के प्रति न होकर, जिसका वह चित्र होता है उसके प्रति होता है। पर पृर्वराग में जो अभिलाप होता है वह इस बात का होता हैं कि जिसे हम चित्र आदि छाया के रूप में देखते है उसे पूर्ण गोचर रूप मे---दर्शन, श्रवण, स्पर्श आदि सबके विपय के रूप में देखें । पर रहस्यवादी पूर्ण गोचर को सामने पाकर अगोचर, अभौतिक अादि की ओर अपना अभिलाप बताता है, जो अभिलाष के वास्तव स्वरूप के सर्वथा विरुद्ध है। जिस प्रकार पूर्वराग में आलम्बन अज्ञात नहीं रहता, चित्र आदि द्वारा अंशतः ज्ञात रहता है, उसी प्रकार जिसे रहस्यवादी अज्ञात कहता है वह भी, छाया या प्रति