पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/१८

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काव्य में प्राकृतिक दृश्य , ३ स्वाभाविक सहृदयता केवल अद्भुत, अनूठी, चमत्कारपूर्ण, विशद् या असाधारण वस्तुओं पर मुग्ध होने में ही नहीं है। जितने आदमी भेंड़ाघाट, गुलमर्ग आदि देखने जाते हैं वे सब प्रकृति के सच्चे आराधक नहीं होते ; अधिकांश केवल तमाशबीन होते हैं। केवल असाधारणत्व के साक्षात्कार की यह रुचि स्थूल और भद्दी है, और हृदय के गहरे तलो से सम्बन्ध नहीं रखती। जिस रुचि से प्रेरित होकर लोग आतशबाजी, जलूस वगैरह देखने दौड़ते है यह वही रुचि है। काव्य में इसी असाधारणत्व और चमत्कार की ओछी रुचि के कारण बहुत से लोग अतिशयोक्तिपूर्ण अशक्त वाक्यो मे ही काव्यत्व समझने लगे । कोई बिहारी के विरह-वर्णन पर सिर हिलाता है, कोई ‘यार’ की कमर गायब होने पर वाह-वाह करता है। कालिदास ने अत्यन्त प्राकृतिक ढंग से रथ को धूल के आगे निकाला* तो भूषण ने घोड़े ८, को छोड़े हुए तीर से एक तीर आगे कर दिया । पर मुबाला जहाँ हद से ज्यादा बढ़ा कि मजाक हुआ । खेद है कि उर्दू की शायरी ऐसे ही मजाक की सूरत में आ गई । । ‘अनूठी बात सुनने की उत्कण्ठा रखनेवाले जब काव्यरसिक समझे जाने लगे तव भिन्न-भिन्न रसो के प्रवाह को दुव्राकर अद्भुत रस सबके ऊपर उछलने लगा, और नारायण पंडित जैसे लोगों को सर्वत्र वही दिखाई देने लगा । उन्होने कह ही डाला कि रसे सारश्चमत्कारः सर्वत्राप्यनुभूयते । तञ्चमत्कारसरित्वे सर्वत्राप्यद्भुतो रसः ।। भावों का उत्कर्ष दिखाने के लिए काव्य में कहीं-कही असाधा रणत्वे अवश्य अपेक्षित होता है, पर उतनी ही मात्रा में जितनी से * [ आत्मोद्धतैरपि रजोभिरलङ्घनीया धावन्त्यमी मृगजवक्षमयेव रथ्यो । -( अभिज्ञानशाकुन्तल, १८ ) 1 ** {जिन चढ़ि आगे काँ चलाइत तीर, तीर एक भरि तऊ तीर पीछे ही परत हैं। -{ शिवभूषण, ३७२ ) 1