पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२०९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२०२
चिन्तामणि

________________

२०२ चिन्तामणि नहीं। सन् १८६१ में इंगलैंड के आस्कर वाइल्ड ने (Oscar Wilde) बड़े धड़ल्ले के साथ कहा “समालोचना में सबसे पहली बात तो यह है कि समालोचक को यह परख हो कि 'कला' और 'आचार' के क्षेत्र सर्वथा पृथक-पृथक् हैं। तब से कई इसी का अनुवाद करते आए, जैसे कला स्वतः न सदाचारपरक हो सकती है, न दुराचार-परक', **कला के भीतर नैतिक सदसत का भेद आ ही नहीं सकता। आप लोग फिर देखे कि ये दोनो कथन भी बेल-बूटे और नक्काशी पर ही ठीक घटते हैं। उन्ही की धारणा यहाँ भी काम कर रही है। यह तो स्पष्ट ही है कि ‘काव्य और सदाचार' के सम्बन्ध में यह मत ‘कला कला ही के लिए’ वाले वाद का एक पुछल्ला है । उस वाद को उड़े बहुत दिन हो गए। जो कुछ उसका अवशेष था उसे इंगलैंड के अत्यन्त निर्मल-दृष्टि वर्तमान समालोचक रिचड्स (1. A. Richards ) ने योरपीय समीक्षा:-क्षेत्र के बहुत से निरर्थक शब्दजाल और कूड़ा-करकट के साथ हटा दिया है और साफ कह दिया है कि सदाचार से कला का घनिष्ठ सम्बन्ध है । | ‘कलावाद’ और ‘अभिव्यञ्जनावाद' के एक बड़े उत्साही प्रचीरक मि० स्पिगर्न (J. E. Spingarn) है जिन्होने “समालोचना की नई पद्धति (Tine Neiv Criticis111 ) नाम की एक छोटी सी पुस्तिका ( जिसे एक पैंफ्लेट कहना चाहिए ) में इन वादो की कुछ बाते अधूरे, अनपचे और असम्बद्ध रूप में इकट्ठी कर दी हैं। ‘काव्य में नैतिक सदसत् का विचार अनपेक्षित है' इस मत को बड़े जोश के साथ उन्होने उस पुस्तिका में इस प्रकार कथन किया है--- “शुद्ध काव्य के भीतर सदाचार-दुराचार हुँढना ऐसा ही है जैसा रेखागणित के समत्रिकोण त्रिभुज को सदाचारपूर्ण कहना और समद्विबाहु त्रिभुज को दुराचारपूर्ण ।” पर जिस पेड़ की जड़ ही कट गई, उसकी डालियों को कोई कैसे हरी कर सकता है ?