पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२१०

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काव्य में अभिव्यञ्जनावाद २०३ अभी सन् १९२९ में कलिफोर्निया (अमेरिका) विश्वविद्यालय के साहित्य-विभाग के प्राचार्यों के आलोचना-सम्बन्धी निबन्धो का जो | संग्रह प्रकाशित हुआ है उसमे प्रो० ह्विपूल (T, K. Whipple ) का “काव्य और सदाचार ( Poetry and Morals ) पर एक निबन्ध है । इस निवन्ध मे इस मत का कि “काव्य के भीतर नैतिक सदसत् का भेद आ ही नहीं सकता’ कई तरह से निराकरण कर दिया गया है । निवन्ध के आरम्भ में ही उन्होने स्पिगर्न के उपर्युक्त कथन को यह कहकर लिया है कि और कुछ कहने के पहले मैं इस पुरानी लकीर के समर्थक मि० स्पिगर्न के कथन को लेता हूँ । प्रो० ह्विपूल ने अपने निबन्ध में यह दिखा दिया है कि 'कला स्वतः का कोई अर्थ नहीं । कविता मनुष्य के हृदय की अनुभूति है जो • मनुष्य के ही हृदय में पहुंचाई जाती है । अतः मनुष्य के साथ उसका सम्बन्ध नित्य है। मानव-जीवन से असम्बद्ध उसका कुछ मूल्य नही । प्रो० हिपूल अन्त में उस पक्ष पर आ गए हैंजिसके विचार से हमारे यहाँ ‘रसाभास’ और ‘साधारणीकरण' को निरूपण हुआ है । वह है ओता यो पाठक का पक्ष । श्रोता मनुष्य-समाज में रहनेवाला प्राणी होता है । जीवन में सत्तु-असत् की जो भावना वह प्राप्त किए रहेगा, किसी काव्य द्वारा प्राप्त अनुभूति का सामञ्जस्य । उसके साथ वह अवश्य चाहेगा । यदि यह सामञ्जस्य न होगा तो

  • Before I speak further let me quote what I consider the most vigorous statement of the orthodox view, from Mr. Spingorn's "The New Criticism'

-Essays in Criticism (by Members of the Department of English, University of California, 1929 ) यह मैंने यहाँ इसलिए उद्धृत कर दिया है जिसमें कला में सदाचार का विचार अनपेक्षित है? इसे एक आधुनिक सिद्धान्त बताकर गंदी और कुरुचि पूर्ण पुस्तकों की तीव्र आलोचना को रस्ता न रोका जाये।