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चिन्तामणि

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२०६ चिन्तामणि सकता है ? यहीं न कि उनमें भावो के उद्दोधन की शक्ति होती है। वन, यही तो मेरा-मेरा क्या काव्य से वास्तव में प्रभावित होनेवालो मात्र का---पक्ष हो । काव्य में उन रूपों का विधान इसी लिए होता है कि वे किसी भाव को, हदय की किसी मार्मिक वृत्ति को, जगाएँ । अतः सगी काव्यानुभृति भावानुभूति के ही रूप में होती है, यह सिद्ध है। अब अलंकारों को लीजिए । क्रोचे अलंकार-अलंकार्य का भेद न मानकर अलंकार को शाब्दिक अभिव्यञ्जना या उक्ति से भिन्न कोई पदार्थ नहीं मानती । उनकी यही बात इधर उधर से आकर हमारे नए काव्यक्षेत्र में भी इस रूप में सुनाई पड़ा करती है कि अलंकार कोई चीज नहीं, उसको जमाना गया । " पर नई रंगत की कविताओं को देखिए तो पता चलता है कि उसी का जमाना आज-कल आ गया है। बात यह है कि आज-कल इस प्रकार के लटके कि “रस-अलंकार तो पुरानी चीजे हैं, उनका जमाना गया इधर उधर से नोचकर ही दुहराए जाते हैं। वे कहाँ से आए हैं, उनका पूरा मतलब क्या है, यह सब जानने या समझने की कोई जरूरत नहीं समझी जाती । इन वाक्यों को वात-बात में दुहरानेवालो में से अधिकांश तो इतनी ही जानते हैं कि रस-अलंकार आदि हमारे साहित्य के बहुत काल से व्यवहृत शब्द है, अंगरेजी शब्दों के अनुवाद नही । इससे इनका नाम लेना फैशन के खिलाफ है। दिन में सैकड़ों बार ‘हृदय की अनुभूति, हृदय की अनुभूति' चिल्लायेंगे, पर 'रस' का नाम सुनकर ऐसा मुंह बनाएंगे मानो उसे न जाने कितना पीछे छोड़ आए है। भलेमानुस इतना भी नहीं जानते कि हृदय की अनुभूति ही साहित्य में ‘रस’ और ‘भाव' कहलाती है। यदि जानते तो कोई नया आविष्कार समझकर ‘हृदयवाद लेकर सामने न आते । सम्भव है इसका पता पाने पर कि 'हृदयवाद तो रसवाद' ही है, वे इस शब्द को छोड़ दें । शब्द-शक्ति, रस और अलंकार, ये विषय-विभाग काव्यसमीक्षा के लिए इतने उपयोगी है कि