पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२२२

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काव्य में अभिव्यञ्जनवाद | २१५ न्द्रियो द्वारा प्राप्त सामग्री से प्रतिभा या कल्पना उनका भिन्न भिन्न रूप में समन्वय करती है। अतः यह कहा जा सकता है कि ज्ञान ही भावो के संचार के लिए मार्ग खोलता है। ज्ञान-प्रसार के भीतर ही भाव-प्रसार होता है। आरम्भ में मनुष्य-जाति की चेतन सत्ता इन्द्रियज ज्ञान की समष्टि के रूप में ही अधिकतर रही। पीछे ज्यो ज्यो सभ्यता बढ़ती गई है त्यो त्यों मनुष्य की ज्ञान-सत्ता बुद्धिव्यवसायात्मक होती गई है। अब मनुष्य का ज्ञान-क्षेत्र बुद्धि-व्यवसायात्मक या विचारात्मक होकर बहुत विस्तृत हो गया है । अतः उसके विस्तार के साथ हमे अपने हृदय का विस्तार भी बढ़ाना पड़ेगा । शुद्ध ( किसी वाद या सम्प्रदाय के नहीं ) विचार और चिन्तन की क्रिया से, वैज्ञानिक विवेचन और अनुसन्धान द्वारा, उद्घाटित परिस्थितियों और तथ्यों के मर्मस्पर्शी पक्ष का भी मूर्त और सजीव चित्रण--उसका भी इस रूप में प्रत्यक्षीकरण कि वह हमारे किसी भाव का अलम्वन हो सके--कुछ कवियो का काम होगा। ये परिस्थितियाँ बहुत ही व्यापक होगी, ये तथ्य न जाने कितनी बातो की तह मे छिपे होगे । यदि अत्याचार होगा तो रावण के अत्याचार-सा लोकव्यापी होगा । होय होगी तो पृथिवी के एक कोने से दूसरे कोने तक होगी, पर एक हाय करनेवाला दूसरे हाय करने वाले से इतनी दूर पर होगा कि सम्मिलित हाय की दारुणता केवल बाहरी आँखों की पहुँच के बाहर होगी। यदि प्राणियो की किसी सामान्य प्रवृत्ति का चित्रण होगा तो सामग्री कीटाणुओं की दुनिया तक से लाई जा सकती है । जगत् रूपी घन-चक्कर और गोरखधन्धे । की महत्ता और जटिलता से चकित होने की चाह में हम अपनी अन्तर्दृष्टि के सामने एक ओर अगुआओ-परमाणुओं और दूसरी ओर ज्योतिष्क पिण्डो के भ्रमण-चक्रों तक को ला सकते हैं। उपर्युक्त