पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/२६२

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काव्य में अभिव्यञ्जनावाद ' २५७ जाता है । मिस्टर, मिसेज, मिस, ड्राइंगरूम, टेनिस, मोर्टर पर हवाखोरी, सिनेमा इत्यादि ही उपन्यासों में अधिक दिखाई पड़ने लगे हैं । मै मानता हूँ कि आधुनिक जीवन का यह भी एक पक्ष है, पर सामान्य पक्ष नहीं । देश के असली, सामाजिक और गार्हस्थ्य जीवन के जैसे चित्र पुराने उपन्यासों में रहते थे वैसे अब कम होते जा रहे हैं। यह मैं अच्छा नहीं समझता ।। - उपन्यास के पुराने ढाँचे के सम्बन्ध में मैं एक बात कहना चाहता हैं । वह यह कि वह कुछ बुरा न था । उसमें हमारे भारतीय कथात्सक गद्य-प्रबन्धों के स्वरूप का भी आभास रहता था । । मनुष्य के दोषी और पापो को उदार दृष्टि से देखना, सत्पथ से भटके हुए लोगों के प्रति घृणा का भाव न उत्पन्न करके दुयो का भाव उत्पन्न करना और जीवन की कठोर वास्तविक परिस्थितियों के बीच भी उदात्त और कोमल भावों का स्फुरण दिखाना आधुनिक उपन्यासों का आदर्श माना जाता है। उपन्यासकारों में इघर प्रेमचन्दजी के अतिरिक्त पं० विश्वम्भरनाथ कौशिक, श्रीसुदर्शन, बा० बृन्दावनलाल वर्मा, वा० प्रतापनारायण श्रीवास्तव,श्रीयुत जैनेन्द्रकुमार आदि महानुभाव बहुत अच्छा कार्य कर रहे हैं। मेरे देखने में उत्कृष्ट कोटि के ऐतिहासिक उपन्यासो को अभाव ज्य को त्यो बना है । यदि जयशङ्कर ‘प्रसाद’ जी इस ओर भी ध्यान दें तो इस अभाव की पूर्ति बहुत अच्छी तरह हो सकती है। मैं तो अपनी ओर से यही कहूँगा कि सामाजिक उपन्यास का क्षेत्र तो चे प्रेमचन्दजी ऐसे लोगों के लिए छोड़ दें जो ऐतिहासिक नाटकों की रचना को ‘गड़े हुए मुर्दे उखाड़ना' कहते हैं और स्वयं इतिहास के प्राचीन क्षेत्र में स्वच्छन्द क्रीड़ा करनेवाली अपनी प्रतिभा को ऐतिहासिक उपन्यासों की ओर प्रवृत्त करें। इधर योरप में छोटी कहानियो का बहुत अधिक प्रचार हुआ ।