पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/३२

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काव्य में प्राकृतिक दृश्य सिर के समान, आकाश से पश्चिम-समुद्र में गिरती है राजूरीजी, चन्द्रमा ) ।। ', र दिल इसकी पूर्ति मल्लक ने इस प्रकार की-- - एषापि झुरमा प्रियानुगमनं प्रोद्दामकाछोत्थिते .' सन्ध्याझौ विरचय्ये तारकमिषाज्जातास्थिशेषस्थितिः ।। " अर्थात् दिशाओं में उत्पन्न सन्ध्यारूपी प्रचण्ड अग्नि में अपने प्रियतम का अनुगमन करके आकाश की श्री ( शोभा ) भी तारो के बहाने ( रूप में ) अस्थिशेष हो गई । ( काप्नोत्थिते-काष्ठा + उत्थिते और काष्ठ + उत्थिते । काष्ठा=दिशा , काष्ठ=लकड़ी ) । मतलब यह कि सती हो जानेवाली आकाश-श्री की जो हड़ियाँ रह गईं वे ही ये तारे हैं। जो कल्पना पहले भावो और रसो की सामग्री जुटाया करती थी वह बाजीगर का तमाशा करने लगी । होते-होते यहाँ तक हुआ कि “पिपीलिका नृत्यति वह्निमध्ये” और “मोम के मंदिर माखन के मुनि वैठे हुतासन आसन मारे” की नौबत आ गई। कहॉ ऋषि-कवि का पाले से धुंधले चन्द्रमा का मुंह की भाप से अन्धे दर्पण के साथ मिलान और कहॉ तारे और हडियाँ ! खैर, यहाँ दोनो का रङ्ग तो सफेद हैं, और आगे चलकर तो यह दशा हुई कि दा-दो वस्तुओं को लेकर साङ्ग रूपक बॉधते चले जाते हैं, वे किसी बात मे परस्पर मिलती-जुलती भी है या नहीं इससे कोई मतलब नही, साङ्ग रूपक की रस्म तो अदा हो रही है। दूसरी बात विचारने , की यह है कि सन्ध्या-समय अस्त होते हुए सूर्य को देख मङ्खक कवि के हृदय में किसी भाव का उदय हुआ या नहीं, उनके कथन से किसी भाव की व्यञ्जनी होती है या नहीं ? यहाँ अस्त होता हुआ सूर्य ‘आलम्बन' और कवि ही आश्रय माना जा सकता है। पर मेरे देखने में तो यहाँ कवि का हृदय एकदम तटस्थ है। उससे सारे वर्णन से कोई