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चिन्तामणि

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चिन्तामणि मतलब ही नहीं। उसमें रति, शोक आदि किसी भाव का पता नहीं लगता । ऐसे पद्यों को काव्य में परिगणित देख यदि कोई वाक्यं रसात्मकं काव्यम्” की व्याप्ति में सन्देह कर बैठे तो उसका क्या दोष ? ललाई के बीच सूर्य का विम्ब समुद्र के छोर पर डूबी और तारे छिटक गए” इतनी ही कथन यदि प्रधान होता तो वह दृश्य कवि और ओता दोनो के रति-भाव का आलम्बन होकर काव्य भी कहला सकता था । पर अलद्वार से एकदम आक्रान्त होकर वह काव्य का स्वरूप ही खो बैठा । यदि कहिए कि यहाँ अलदार द्वारा उक्त दृश्य-रूप वस्तु व्यंग्य है तो भी ठीक नहीं ; क्योकि ‘विभाव' व्यंग्य नही हुआ करता । ‘विभाव' में शब्द द्वारा उन वस्तुओं के स्वरूप की प्रतिष्ठा करनी होती है जो भावों का आश्रय, आलम्बन और उद्दीपन होती हैं। जब यह वस्तु-प्रतिष्ठा हो लेती है तब भावो के व्यापार का आरम्भ होता है । मुक्तक में जहाँ नायक-नायिका का चित्रण नहीं होता वहाँ उनका ग्रहण ‘आक्षेप' द्वारा होता है, व्यञ्जना द्वारा नहीं । दृश्य-वर्णन में उपमा, उत्प्रेक्षा आदि का स्थान कितना गौण है इसकी सनोविज्ञान की रीति से भी परीक्षा हो सकती है। एक पर्वत-स्थली का दृश्य वर्णन करके किसी को सुनाइए । फिर महीने दो महीने पीछे उससे उसी दृश्य का कुछ वर्णन करने के लिए कहिए। आप देखेंगे कि उस सम्पूर्ण दृश्य की सुसङ्गत योजना करने वाली वस्तुओं और व्यापारी में से शायद ही किसी का उसे स्मरण हो । इसका मतलब यही है कि उस वर्णन के जितने अंश पर हृदय की तल्लीनता के कारण पूरा ध्यान रहा उसका संस्कार बना रहा, और इसलिए सङ्केत पाकर उसकी तो पुनरुद्भावना हुई, शेप अंश छूट गया। | खेद के साथ कहना पड़ता है कि हिन्दी की कविता का उत्थान उस समय हुआ जब संस्कृत-काव्य लक्ष्यच्युत हो चुका था । इसी से हिन्दी की कविताओं में प्राकृतिक दृश्यो का वह सूक्ष्म वर्णन नही "