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चिन्तामणि

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चिन्तामणि सहित जमीन का बोझा लाकर रख दिया ! उपमा यदि न मिली तो बस, ‘शेप, शारदा' पर फिरे, उनकी इज्जत लेने पर उतारू ! मलिक मुहम्मद जायसी की 'पद्मावत' यद्यपि एक आख्यानकाव्य है पर उसमें भी स्थल-वर्णन सूक्ष्म नहीं है । सिंहल द्वीप के गढ़, राजद्वार, बगीचे आदि का वर्णन है । बगीचे के वर्णन में पेड़ो और चिड़िया की फेहरिस्त है , जो बहेलियों से भी मिल सकती है । प्राप्त प्रथा के अनुसार पद्मावती के संयोग-सुख के सम्बन्ध में ‘पट्ऋतु और नागमती की विरह-वेदना के प्रङ्गग में ‘वारहमासा' अलवत है। दोनों का ढंग वही है जो ऊपर कहा गया है। दो उदाहरण यथेष्ट होगे-- ऋतु पावन बरसे पिउ पावा , सावन-भादं अधिक सुहावी । पदमावति चाहति इन्तु पाई ; गगन सुहावन, भूमि सुहाई । कोविल वैन, पति वग छुटी ; धन निमरी जनु वीरवहूदी। चमक चीज, वरसे जल सोना , दादुर मोर-सबद सुठि लोना ।। रंग-राती पिय-सँग निसि जागी , गरजे गगन, बोंकि गर लागी । सीतल वृंद, ऊँच चौपार ; हरियर सब दीखे संसार । हरियर भूमि, कुसुभी चोला ; औ धन पिय-सँग रचा हिँडोला । संयोग श्रृंगार की दृष्टि से यह वर्णन वडा मनोहर है। पर इसमे कवि का अपना सूक्ष्म निरीक्षण ‘बरसै जल सोना' में ही दिखाई पड़ता है। और सव वर्णन परम्परानुसारी ही है। अब विप्रलम्भ ४ङ्गार के अन्तर्गत अपाढ़ का वर्णन लीजिए । चदा असाद, गगन धन गाजा ; साजा विरह टुंद दल बाजा। धूम स्याम घोरी घन धाए ; सेत धुजा वग-पाँति दिखाए । खरग-बीज चमकै चहुँ ओरा : बुद-बाने वरसहि घन घोरा। उनई घटा आइ चहुँ फेरी , कंत । उवार मदन हौंधेरी । दादुर, मोर , कोकिला पीऊ ; गिरहि वीज, घट रहै न जीऊ । पुष्य-नखत सिर ऊपर अावी , हौंबिनु नाह, मँदिर को छावा ।