पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/३७

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चिन्तामणि

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चिन्तामणि कारण उन्होने उसके रम्य स्वरूप पर अधिक दृष्टि जमाई है । नीचे दिए हुए वर्णन मे यद्यपि प्रचलित रीति के अनुसार प्रत्येक वस्तु और व्यापार के साथ दृष्टान्त और उत्प्रेक्षा लगी हुई है, पर निरीक्षण बहुत अच्छा है-- सब दिन चित्रकूट नीको लागत ; बेर्पा भतु-प्रवेस विसेषु गिरि देखत मन अनुरागत । चहु दिसि वन संपन्न, विहग मृग चोलत सीमा- पावत ; जनु सुनरेस-देस-पुर प्रमुदित प्रजा सकल सुख छावत । सोहत स्याम जलद मृदु घोरत धातु रँगमगे चुंगनि ; मनहुँ आदि अभोज विराजत सेवित सुर-मुनि-शृंगनि । सिखर पर सि घन-घटहि मिलति वगपति सी छवि कवि वरनी ; अादि वराह विहरि वारिधि मन उड्यो है दसन धरि धरनी । जल-जुत विमल सिलनि झलकत नभ-वन-प्रतिबिंब तरंग ; मानहु जग-रचना विचित्र विलसति विराट-अंग-अंग । मंदाकिनिहि मिलते झरना झरि-झरि, भरि-भरि जल आर्छ । 'तुलसी' सकल सुकृत-सुख लागे मन राम भक्ति के पार्छ । वाह्य प्रकृति के सम्बन्ध में सूरदासजी की दृष्टि वहुत परिमित है। एक तो व्रज की गोचारण-भूमि के बाहर उन्होने पैर ही नही निकाला, दूसरे उस भूमि का भी पूर्ण चित्र उन्होने कहीं नहीं खीचा । उद्दीपन के रूप में केवल दूम, वल्ली और यमुना के किनारेवाले कदम्ब का उल्लेख-भर वार-चार मिलती है । गोपियों के विरह के प्रसङ्ग में रीति के अनुसार पावस आदि का वर्णन अवश्य है, पर कहने की आवश्यकता नही कि उसमें पावस स्वरूप-स्थित नहीं है, वियोगिनी गोपियो के मानस-प्रदत्त रूप में है--कही वह कृष्ण-रूप मे है, कही चढ़ाई करते हुए राजा के रूप मे, इत्यादि ; जैसे आजु घन स्याम की अनुहारि ; उन अाए साँवरे से, सजनी । देखे रूप की अरि ।।