पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/३९

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चिन्तामणि

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३२ चिन्तामणि फल फूलन-पूरे, तरुवर रूरे, कोकिल-कुल कलरव बोलें , अति मत्त मयूरी, पियरस-पूरी, वन-उन प्रति नाचति डोलें । देखिए दण्डक वन के वर्णन में श्लेप का यह चमत्कार दिखाकर आप चलते हुए---- सोभत दंडक की रुचि वनी, भाँतिन-भाँतिन सुंदर घनी । सेव व नृप की जनु लसे, श्रीफल भूरि भाव जहे वसै । चेर भयानक सी अति लगे, अर्क-समूह जहाँ जगमगे । 'बेर', 'वनी', 'श्री-फल' और 'अर्क’ शब्दो मे श्लेप की कारीगरी दिखा दी, बस हो गया । वन-स्थली के प्रति उनको अनुराग तो था नहीं कि उसके रूप की छटा व्योरे के साथ दिखाते । ‘भयानक' शब्द जो रखा हुआ है वह 'भाव' का सूचक नहीं है; क्योकि न तो ‘बेर' ही कोई भयङ्कर वस्तु है, न कि ( मदार ) ही ! श्लेप से 'अर्क' का अर्थ सूर्य लेने से ‘समूह' के कारण प्रलय-काल का अर्थ निकलता है, जो प्रस्तुत नहीं है । दण्डक-वन क्या दे देता---'आनन्द दे सकता था, वह भी नहीं देता था जो उसके रूप का विश्लेपण केशवदासजी करने जाते ? राजा की सेवा से 'श्री-फल प्राप्त होता था, उसका जिक्र मौजूद है। जव केशवदासजी को यह हाल है तब फुटकर पद्य कहनेवाले उनके अनुयायी 'कविदों में प्रकृति का रूपविश्लेषण हुँढना ही व्यर्थ है। ऋतु-वर्णन की पुरानी रीति उन्होंने निवाही है। उनके वर्णन में उद्दीपनभर के लिए फुटकर वस्तुएँ आई है ; सो चे भी उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक आदि की भीड़ में छिपी हुई हैं। वसन्त कहीं राजा होकर आया है, कहीं फौजदार, कही फकीर ; कही कुछ, कही कुछ । किसी ने कुछ बढ़कर हाथ मारा तो शिशिर और ग्रीष्म-ऋतु में जो अपने शरीर की दशा देखी उसको वर्णन कर दिया, और उपचार का नुस्खा कह गए--