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चिन्तामणि

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चिन्तामणि मेरे जान, पौन सीरे ठौर को पकरि कोऊ, घरी एक वैठि कहूँ घामै बितवत है ।। नन्ददासजी एक प्रसिद्ध कृष्णभक्त और कवि थे। पर व्रजभूमि की महिमा का बखान करते समय दृश्य अङ्कित करने के बखेड़े में भी नहीं पड़े । वहाँ चिरवसन्त रहता है, इतने ही में अपना मतलब सबको समझा दिया--- श्रीवृंदावन चिदघन, कछु छवि वर नि न जाई , कृष्ण ललित लीला के काज गहि रह्यो जताई । जहँ नग, रोग, मृग, लता कुंज, वीरुध, तृन जेते ; नहिंन काल-गुन प्रभा सदा सोभित रहैं तेते । सकल जतु अविरुद्ध जही; हरि, मृग सँग चरहीं ; काम-क्रोध मद लाभ-रहित लीला अनुसरहीं । सत्र दिन रहते वसंत कृष्ण-अवलोकनि लोभा ; त्रिभुवन कानन जा विभूति करि सोभित सौभा । या वन की वर वानिक या वन ही बनि आवै ; सेस, महेस, सुरेस, गनेस न पारहिं पावै ।। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के समय से हमारी भाषा नए मार्ग पर को खड़ी हुई , पर दृश्य-वर्णन में कोई संस्कार नही हुआ । बाल्मीकि, कालिदास आदि प्राचीन कवियों की प्रणाली को अध्ययन करके सुधार का यत्न नहीं किया गया । भारतेन्दुजी का जीवन एकदम नागरिक था । मानवी प्रकृति में ही उनकी तल्लीनता अधिक पाई जाती है; वाह्य प्रकृति के साथ उनके हृदय का वैसा सामञ्जस्य नहीं पाया जाता । ‘सत्यहरिश्चन्द्र' में गङ्गा को और चन्द्रावली में यमुना का वर्णन अच्छा कहा जाता है । पर ये दोनो वर्णन भी पिछले खेचे के कवियो की परम्परा के अनुसार ही है। इनमें भी एक-एक साथ कई वस्तुओ और व्यापारों की सूक्ष्म सम्बन्ध-योजना नहीं है, केवल वस्तुओं और