पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/५६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

काव्य में प्राकृतिक दृश्य हँसना, रोना, क्रोध करना आदि देखने के लिए ही नहीं, बल्कि ऐसे विषयों को सामने लाने के लिए जो स्वयं उसे हँसाने, रुलाने, क्रुद्ध करने, आकृष्ट करने, लीन करने का गुण रखते हो। राजा हरिश्चन्द्र को श्मशान में रानी शैव्या से कफन माँगते हुए, राम-जानकी को वनगमन के लिए निकलते हुए पढ़कर ही लोग क्या करुणाई नहीं हो जाते है उनकी करुणा क्या इस बात की अपेक्षा करती है कि कोई पात्र उन दृश्य पर शोक या दुःख, शब्दो और चेष्टा द्वारा. प्रकट करे ? तुलसीदासजी के इस सवैये में-- कागर-कीर ज्यों भूषन-चीर सरीर लस्यो तजि नीर ज्यों काई । मानु, पिता, प्रिय लोग मवै सनमानि सुभाय सनेह-सगाई । संग सुभामिनि भाइ भलो, दिन ६ जनु अधि हुते पहुनाई। राजिवलोचन राम चले तजि बाप को राज वटाऊ की नाई ।। पाठक को करुण रस में मग्न करने की पूरी सामग्री मौजूद है। परिस्थिति के सहित राम हमारी करुणा के आलम्बन है, चाहे किसी पात्र की करुणा के लम्बन हो या न हो