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चिन्तामणि

१२ चिन्तामणि कविता समझते हैं वे कविता को जीवन-क्षेत्र से बाहर खदेड़ना चाहते हैं ।। योरप का वर्तमान लोकादर्शवाद ( 11111111tarian Ide: 115111 ) मनुष्य की अन्तःप्रकृति के एक समूचे पक्ष के सर्वथा निराकरण मे-केवल प्रेम अर . भ्रातृभाव की भीतरी शक्ति द्वारा क्रूरता, क्रोध, स्वार्थमद, हिसावृत्ति आदि की चिर शान्ति में--काव्य को परम उत्कर्ष मानती हैं और उसी के भीतर सौन्दर्य और मङ्गल को वद्ध देखता है। उसका कहना कुछ-कुछ इस प्रकार है- “सन्दर्य से, प्रेम से, मङ्गल से पाप को एकदम समूल नष्ट कर देना ही हमारी आध्यात्मिक प्रकृति की एकमात्र आकांक्षा हैं ।... ..उच्च साहित्य न्वभाव-निःमृत अश्रुजल से कल-मोचन करने हैं और स्वाभाविक अनिन्द्र से पुर्य का स्वागत करते है ।" .. | यह परम भक्त ईसाई टाल्सटाय के साहित्यिक उपदेशो की वङ्ग- प्रतिध्वनि हैं । थोड़े शब्दों में इसका खुलासा यह है कि संसार में यदि क्रूरता, हिसा, अत्याचार, स्वार्थमद आदि हैं तो अत्याचारी को विवेकी, ऋर को सदय, पापी को पुण्यात्मा, अनिष्टकारी को प्रेमी बनाने के अविचल प्रयन-प्रदर्शन में ही साहित्य की उचता है अर्थात् शुभ और सात्त्विक भावो की अशुभ और तामस भावो पर चढ़ाई और विजय ऊँचे साहित्य का विधान है। क्रूरता पर क्रोध, अत्या- चारियो का ध्वंस, पापियो को जगत् के मार्ग से हटाना, मध्यम काव्य का विधान है । वर्ण-व्यवस्था से शब्द ले तो एक ब्राह्मण-काव्य है, दूसरा क्षत्रिय-काव्य ।। | इन आदर्शवादियो का कहना है कि आदर्श को सदा सामान्य जीवन-भूमि से ऊँचे रखना चाहिए । ठीक है। जितने आदर्श होते

  • श्रीरवीन्द्रनाथ ठाकुर–“प्राचीन साहित्य' ।