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चिन्तामणि

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चिन्तामणि रूप-विभूति को ईश्वर की कृति न कहकर उसकी छाया या प्रतिविम्व कहा । किस प्रकार इस ‘प्रतिविम्ववाद' के साथ अभिव्यक्तिवाद का संयोग करके उन्होने अपने काव्यक्षेत्र में कृत्रिमता न आने दी, इसका वर्णन हम आगे चलकर करेंगे । यहाँ प्रस्तुत विपय है सुखसौन्दर्य की भावना को अव्यक्त और अभौतिक क्षेत्र में ले जाकर पूर्णता को पहुँचाना । इस सम्बन्ध में यह अच्छी तरह समझ रखना चाहिए कि सूफी-कविता इस. छाया के बीच में ही इस दृश्य जगन् के भीतर ही---उस प्रियतम की झलक देखने-दिखाने में प्रवृत्त रही है। अव्यक्त के क्षेत्र में सौन्दर्य को अनन्त सागर, आनन्द की अपरिमित राशि, प्रेम-वासना की असीम तृप्ति का विवरण देने वहुत ही कम गई है। भारतवर्ष में निर्गुण-सम्प्रदाय के भीतर जो सूफी-भावना प्रकट हुई उसमें अलबत यह प्रवृत्ति कुछ दिखलाई पड़ती है। कारण यह है कि भारतीय काव्यक्षेत्र में उसे अरबी-फारसी के काव्यक्षेत्र की अपेक्षा अधिक रमणीय और प्रचुर रूप-विधान मिला । पर ‘कल्पनावाद के सहारे अव्यक्त और अज्ञात की सबसे अधिक झॉकियाँ विलायती रहस्यवाद’ में ही खोली गई । विलायती काव्यक्षेत्र में सुख-सौन्दर्य की भावना को अज्ञात और अव्यक्त के क्षेत्र में ले जाकर पूर्णता पर पहुँचाने का इशारा किधर से मिला, थोड़ा यह भी देख लेना चाहिए। यह इशारा जर्मन दार्शनिको के ‘प्रत्ययवाद' ( Idealisni ) से मिला, जिसके प्रवर्तक कांट ( Kant ) थे । उन्होने मनुष्य के ज्ञान की विस्तृत परीक्षा करके यह प्रतिपादित किया कि इन्द्रियों की सहायता से मन को जिन रूप का बोध होता है वे उसी के रूप है ; किसी वाह्य वस्तु के नहीं । परमार्थ-पक्ष (Critique of Pure Reason ) मैं ईश्वर, जगत् और आत्मा को पक्ष-विपक्ष दोनों के प्रमाणों के खण्डन द्वारा, असिद्ध ठहराकर, व्यवहार-पक्ष (Critique of Practical Reason )