पृष्ठ:चिंतामणि दूसरा भाग.pdf/९४

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काव्य में रहस्यवाद । ८७. में उन्होंने ईश्वर, अमर आत्मा और अनन्त जीवन सवको प्रतिपादन किया। उन्होंने कहा कि शुद्ध-बुद्धि के द्वारा तो नाम-रूपात्मक जगत् से परे वस्तु-तत्त्व तक हम नहीं पहुँच सकते, पर व्यवहार-बुद्धि द्वारा पहुँच जाते हैं । इच्छा या कर्मेच्छा पारमार्थिक वस्तु को आभास देती है । यह न तो बुद्धि से बद्ध या नियन्त्रित है और न बाह्य जगत् के नियमों से । इस पर आदेश करनेवाले केवल नित्य और सर्वगत धर्मनियम हैं । इच्छा का यह स्वातन्त्र्य हमें नाम-रूपात्मक दृश्य जगत् से अगोचर जगत् मे ले जाता है जहाँ धर्म-नियम, शुद्ध अमर आत्मा' और ईश्वर का अस्तित्व मिल जाता है। जीवन का चरम मङ्गल क्या है ? न अकेला धर्म, न अकेला सुख । धर्म का सुख से कोई स्वतः सिद्ध सम्बन्ध नहीं। जीवन के चरम मङ्गल में धर्म और सुख दोनों की पराकाष्ठा है। अब इन दोनों का संयोग कैसे होता है ? कोई मध्यस्थ चाहिए। इसलिए ईश्वर का अस्तित्व मानना पड़ता है ।। ईश्वर दोनों के बीच संयोग स्थापित करता है। इसी विचार-पद्धति से आत्मा का अमरत्व भी मानना पड़ता है। धर्म की पराकाष्ठा और सुख की पराकाष्ठा के साधन के लिए यह अल्पकालिक जीवन काफी नहीं है। अतः अनन्त जीवन मानकर चलना पड़ता है । * कट्टर दार्शनिक कांट के इस व्यवहार-पक्ष-निरूपण पर वैसीआस्था नहीं रखते । कांट अपने परमार्थ-पक्ष-निरूपण के लिए ही प्रसिद्ध है ॥ विचार करने पर यह स्पष्ट प्रतीत होगा कि कांट को व्यवहार-पक्षनिरूपण उसी दृष्टि से हुआ है जिस दृष्टि से शङ्कराचार्य का ; पर दोनो में उतना ही अन्तर है जितना भारत और योरप मै । व्यवहार-पक्ष में शङ्कराचार्य ने जिस उपासना-गम्य ब्रह्म को अवस्थान / किया है वह सोपाधि या सगुण ब्रह्म है; अव्यक्त पारमार्थिक सत्ता

  • विशेप देखिए 'विश्व-प्रपञ्च' की भूमिका ।