साध की होली १० होलिका-दाह की संध्या थी। शंकरबहश का छोटा भाई रामसिंह बढ़ी प्रसन्नता-पूर्वक श्राफर युवती से बोला-भौजी, फल हमारी- सम्हारी होली होगी, तैयार रहना । भौजी मौन रही । रामसिंह पुनः वोक्षा-भौजी, कल मैं तुमसे पहली बार होली खेलेगा। देखो तो कल तुम्हारी क्या गति बनती है, ऐसी होली कभी न खेली होगी। हाँ, ज़रा हुशियार रहना। इस वार युवती ने चढ़ी गंभीरता-पूर्वक सिर उठाकर कहा-मुझसे होली खेलोगे, देवर? रामसिंह-मुसाफिराकर बोला-हाँ तुमसे, तुमसे । भौजी-मुझसे होली खेलने लायन तुम्हारे घर में है कौन ? रामसिंह उसी प्रकार सरल स्वभाव से वोला-मैं हूँ। भौजी-तुम हो ? रामसिंह-(छाती ठोंक कर ) हाँ, मैं हूँ । भौजी-मुझे विश्वास नहीं होता ? रामसिंह -ल हो जायगा। भौजी-मेरे साथ होली खेलने को रंग कहाँ पायोगे? रामसिंह-रंग तो मैंने शहर से बहुत सा मँगाया है। भौजी-उस रंग से मैं होनी नहीं खेलेंगी। रामसिंह-तो और जैसा रंग कहो वैसा रंग लाऊँ। भौजी-लायोगे? रामसिंह-हाँ, नाऊँगा। भौजी- नहीं ला सकोगे रामसिंह-लाऊँगा भौजी, ज़रूर लाऊँगा, कहके देख लो । रुपए तो मिलेगा तब भी लाऊँगा ! भौजी-वह रंग रुपए से नहीं मिलेगा। रामसिंह विस्मित होकर बोला-तब काहे से मिलेगा, भौजी? म
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