सुखदेव०-कोई प्रण किया है क्या ? प्रियंवदा-प्रण करने की कौन-सी बात है, तुम्हें भूक ज़ोर से लगी है, तुम भोजन करो । मुझे ज़ोर से नहीं लगी, मैं ठहरकर फलंगी। इस बात के श्रागे कोई तर्क न चज्ञता देख सुखदेवप्रसाद चुप- चाप श्रासन पर जा बैठे और भोजन करने लगे। वह भोजन समाप्त करके उठने ही वाले थे कि उसी समय प्रियंवदा ने परिच्छेद समाप्त कर दिया और पुस्तक को पलँग पर पटककर पति से पूछा- क्या भोजन कर चुके ? सुखदेवप्रसाद ने कहा-तुम्हारी बला से ! प्रियंवदा देवी बोलीं-बस, इन्हें तो जरा-जरा-सी बात पर क्रोध पाता है। इनके सामने कोई प्रत्येक समय हाथ जोड़े खड़ा रहे, यह प्रसन्न रहें। सुखदेव०-जिन्हें प्रसन्न रखने का खयाल रहता है, वे ऐसा करते ही हैं। प्रियंवदा-जो स्त्रियाँ भी पुरुषों से ऐसे ही व्यवहार की भाशा करें तो? सुखदेव०-कैसे व्यवहार की? यही कि पुरुष स्त्री के सामने हाथ जोड़े खड़ा रहे ! प्रियंवदा-और क्या ! क्या स्त्रियों में ज्ञान नहीं है, क्या वे मनुष्य नहीं है? सुखदेव०-यह कौन कहता है कि स्त्रियाँ मनुष्य नहीं है ? प्रियंवदा-तो फिर पुरुषों को क्या अधिकार है, जो वे स्त्रियों से क्रीत दासी के-से व्यवहार की प्राशा रखते हैं। यदि वे ऐसी प्राशर. रखते हैं, तो उनको भी स्त्री का क्रीत-दास बनकर रहना चाहिए। सुखदेव०-रहते ही हैं । संसार में हजारों पुरुष ऐसे हैं, जो स्त्री के ।
पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/१५
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