पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/१७

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चित्रशाला

सुखदेवप्रसाद मुसकिराए । उन्होंने मन में सोचा-पशिक्षा कितनी भयानक होती है। शिक्षा देने की अपेक्षा तो यही अच्छा है कि स्त्रियाँ अशिचित ही रहें। प्रकट रूप में पती से टन्होंने कहा-भगवान् जाने, तुम स्वतंत्रता और अधिकार के क्या अर्थ लगाती हो! प्रियंवदा-स्वतंत्रता और अधिकार के यही अर्थ है कि लो यातें पुरुष करते हैं, वही स्त्रियों को भी करने दी जाय । जैसा व्यवहार पुरुप स्त्री के साथ करते हैं, वैसा ही व्यवहार स्त्री पुरुष के साथ मी फर सबै । जो बातें पुरुषों के लिये अच्छी समझी जाये, वे स्त्रियों के लिये भी अच्छी समझी जाय, और तो पुरुषों के लिये बुरी समझी जाय, चे त्रियों के वास्तं भी बुरी समझी जाय । सुखदेव बस, इतनी ही-सी बात? प्रियंवदा-बस, इसनी ही-सी बात । सुखदेव०-अच्छी बात है, जाम्रो ग्राज से मैं अपनी शोर से तुम्हें यह स्वतंत्रता तथा अधिकार देता हूँ कि जो मला-बुरा काम मैं करूँ, पही तुम भी कर सकती हो । जैसा व्यवहार में तुम्हारे साय करता हूँ या कर, वैसा ही तुम मेरे साथ कर सकती हो। प्रियंवदा-(प्रसन्न होकर ) क्या सच्चे हृदय से ऐसा कहते . . हो? सुखदेव-सच्चे हृदय से। प्रियंवदा-स्वच्छ हृदय से ? सुखदेव०- हाँ, स्वच्छ हृदय से । प्रियंवदा उदलकर पति के गले से लिपट गई और दोजी- प्रियतम, तुम अादर्श पति हो। (३) . वैसे तो प्रियंवदा देवी को कोई दुःख न या । अच्छे-से-अद्धा .