पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/१८

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स्वतंत्रता


खाती थों, धौर अच्छे-से-अच्छा पहनती थीं। पति भी उन्हें युवा, सुंदर, स्वस्थ तथा सुशिक्षित मिला था। घर में सास-ससुर इत्यादि भी उसे घाँखों का तारा ही समझते थे। परंतु फिर भी प्रियंवदा देवी असंतुष्ट रहती थी। उनके असंतोप के कई कारण थे। वह अपने को घर में सब स्त्रियों से अधिक सुशिक्षित समझती थीं, घात भी ठीक थी । सुखदेवप्रसाद के घर में कोई स्त्री प्रियंवदा के समान पढ़ी-लिखी न थी। श्रतएव उन्हें अपने पढ़े लिखे होने का बड़ा अभिमान था। उनकी यह इच्छा थी कि घर की सब स्त्रियाँ उनको प्राज्ञाकारिणी रहें, जो कार्य करें, उनके श्रादेशानुसार करें। पति से भी वह यही भाशा रखती थीं कि वह उनके आज्ञाकारी रहें । 'ऐसी पनी उनके नसीब में थी कहाँ-ये उनके बड़े भाग्य हैं, जो उन्हें मेरे समान पत्नी मिली है, फिर भी वह मेरी क़द नहीं करते ।' कद्र करने का अर्थ प्रियंवदा देवी यह समझती थीं कि सुखदेवप्रसाद प्रत्येक समय उनका मुंह साकते रहें, और जिस समय जैसी उनकी इच्छा हो, वैसा ही करें। उनके किसी कार्य पर वह कभी कोई आपत्ति न करें। जिस समय प्रियंवदा देवी की इस प्रकार की कद्रदानी में व्याघात लगता था, तब वह अपनी सुशिक्षा की सहायता लेकर 'स्वतंत्रता' तथा 'अधिकार' के सिद्धांतों पर दृष्टिपाल फरती थीं। उस समय उन्हें यह पता लगता था कि भारतीय नारियों पर समाज बड़ा अत्याचार करता है। दूसरों से तो वह ऐसी श्राशाएँ रखती थी; परंतु स्वयं उनका व्यवहार कैसा था ? सास-ससुर की सेवा करना वह दासी-कर्म समझती थीं । एक दिन उनकी सास के पैरों में दुर्द उठा। सुखदेवप्रसाद ने उनसे कहा- जाओ, जरा माताजी के पैर दाब दो। प्रियंवदा देवी मुँह बिचका- कर बोलीं-"यह काम तो नौकरों का है, मैंने आज तक किसी के पैर नहीं दावे, मैं पैर दाबना क्या जान १" यहाँ तक कि पति की