पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/५५

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प्रेम का पापी लिए हुए चला जाऊँ ; पर नहीं, मैं इसमें भी सफल न हुश्रा । विना किसी से कहे मरकर भी शांति न पाता। तुम मेरे एक-मान मित्र हो। हृदय की बात मित्र से न कहूँ, तो किससे कहूँ ? यही सोचकर तुमसे स्व कहने के लिये विवश हो गया। मोहन, इस पत्र को तुम चमेली के भाई की दृष्टि से न पढ़ना, श्यामाचरण के मित्र की दृष्टि से पदना । यदि तब भी तुम्हारे हृदय में मेरे प्रति दया तथा सहानु- भूसि न उत्पन्न हो, घृणा तथा द्वेष ही उत्पन्न हो, तो समझ लेना, मैं महाधम, मित्र-द्रोही तथा नारकी था, और मुझे भूल जाने की , चेष्टा करना। "मोहन, तुम सब जान गए । क्या अब भी तुम यह नहीं सोचते कि यदि मेरी तुम्हारी मित्रता न हुई होती, तो अच्छा था । दुर्भाग्य अमृत को भी विष बना देता है। तुम्हारी मित्रता अमृत थी ; पर दुर्भाग्य ने मेरे लिये उसे विष बना दिया । "बस, अधिक क्या कहूँ। तुमने मेरे साथ जैसा व्यवहार किया है, उससे मैं जन्म जन्मांतर में भी तुमसे उरिन नहीं हो सकता। अंत में ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना है कि वह सबको तुम्हारा-सा मित्र दें, पर मेरा-सा दुर्भाग्य किसी को भी नहीं। तुम्हारा अभागा मिन श्यामाचरण" पत्र पढ़ते-पढ़ते मोहन की आँखों से आँसुओं की धारा बहने लगी। उन्होंने पत्र को समाप्त करके वहीं पटफ दिया। दौड़ते हुए श्यामाचरण के पास पहुँचे । श्यामाचरण आँखें बंद किए पड़े थे। उनकी साँस उखड़ चुकी थी। मोहन ने उनके सिर के नीचे हाथ देकर उन्हें उठाया, और पुकारा-श्यामाचरण श्यामाचरण ने आँखें खोली, लड़खड़ाती हुई जवान ' से कहा-मोहन! ।