परिणाम सेठजी-धर तो अच्छा ही होगा, इसके लिये तो पूछना व्यर्थ है। आपने सब देख सुन लिया होगा। पंडितजी-घर तो जो देखा है सो देखा ही है; पर मुख्य बात जो है वह लड़की है । बदकी अच्छी है, सुंदर, सुशीन तथा पढ़ी- लिखी है। सेठजी-तो और क्या चाहिए। पंडिसजी-हाँ, मैंने बड़की ही देखी है। वैसे तो कुछ लोगों ने इस संबंध पर आपत्ति भी की थी। सेठजी-क्यों? पंडितजी-इसलिये कि लड़की के न मा है, न कोई भाई है, न बहन है, केवत पिता है। सेठजी~केवल पिता-पुत्री हैं ? पंडितजी-केवल! सेठजी-कोई चाचा-ताज तो होंगे ही ? पंडितजी-कोई नहीं। सेठजी-अरे तो विवाह-कार्य कौन करेगा? पंडितजी-कोई दूर के रिश्तेदार हैं। उन्हीं के घर की स्त्रियाँ आ गई हैं । वही सब कार्य करेंगी । चैसे नौकर-चाफर बहुत हैं, भादमी धनी है। सेठजी मुसकिराकर बोले-तभी-तभी । सोची दूर की पंडितजी । फिर क्या है ? मौज करो, है सब तुम्हारा mo पंडितजी--कुछ झंपकर मुसकिराते हुए बोले--यह बात नहीं सेठजी । ईश्वर का दिया मेरे पास सब कुछ है। पराए धन पर नीयत डिगाना मैं पाप समझता हूँ। बात इतनी ही है कि कन्या मुझे पसंद आ गई। ..-
पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/६५
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