पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/६८

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चिनशाना को उद्यत हो जाता था, उस समय तेरी मूर्ति मेरे शरीर में नवीन शक्ति का संचार कर देती थी और मैं दून टरमाद के साथ दाधानों को परास्त करता दुभा आगे बढ़ता था । मेरे जीवन का उद्देश्य पूरा हो गया। अब यदि अाज में पुनः उसी प्रकार कंगाल हो जाऊं, तो मुझे किचिन्मान भी दुःख न होगा। श्यामा ने पिता को अपनी दोनों बाहुओं में जकड़कर कहा- बावा, ऐसी बात मत कहो, मेरा कलेला टुकड़े-टुकड़े होता है। टसी समय कमरे से द्वार से एक स्त्री ने कहा-महराजजी, समधी कहते है कि जवट्टी बिदा करो, देर होती है। रामलाल ने श्यामा को अपने से अलग करते हुए कहा-जानो बेटी, देर होती है। श्यामा अलग हो गई और कुछ मग तक पिता की ओर देखती रही। तत्पश्चात् पुनः उससे लिपटकर वोलीबाबा, मुझे जल्दी बुला लेना, नहीं मैं रो-रोकर प्राण दे दूंगी। वृद्ध के होठों पर मृदु हास्य की एक हल्की रेखा दौड़ गई। उसने कहा-बेटी, किसी के मा-बाप सदेव जीवित नहीं रहते । श्रव तुम्हारा वर नहीं है । नुम जीवन के एक नवीन क्षेत्र में जा रही हो और तुम्हें अपना शेप जीवन उसी क्षेत्र में व्यतीत करना है। अतएव तुम्हें उसके लिये अभी से प्रस्तुत हो जाना चाहिए। श्यामा की हिचकी बंधी हुई थी। अतएव वह इसका कोई स्पष्ट उचर न दें सकी। रामजान ने ऑस् पांदते हुए कहा-बेटी, मैं तुम्हें पाशीर्वाद देता हूँ कि तुम फला-फूलो, जीवन का सुख लूटो । बस, मेरी यही अंतिम श्राकांदा है। इसके पश्चात् वह श्यामा को सहारा देकर कमरे के बाहर ले गया। कमरे के बाहर दो स्त्रियाँ अच्छे वस्त्र पहने हुए बड़ी थी और "