पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/८४

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चिनशाना . ताला-ये लल्लो पत्तो की वारो हमें नहीं भाती, हम तो साफ मादमी है। सुप्रीता होता, तो अभी निकालकर दे देते। सुबीता नहीं है, तो साफ कर दिया कि नहीं है । रामभजन-वैर, थापकी इच्छा, हम अधिफ कुछ तो कह नहीं सकते। यह कहकर रामभजन टनके सामने से चले पाए । एक दूसरे नौ- फर से आकर बोले-देखी लाला की यारों! कहते हैं, नुबीता नहीं है। नौकर-अरे ये सब टालने की बातें हैं भैया! अभी चंदाजान सौ रुपए मांग भेजें, तो खाला श्राप लेकर दौड़े जायँ, दस-पाँच रपयों के लिये कहते है, सुबीता नहीं है। रामभजन-ऐसी ही यातों से जी खट्टा हो जाता है बतायो, जान तोड़कर रात-दिन मेहनत करें, हजारों रुपए धर-उठावे; पर कमी एक पैसे का फरक नहीं पड़ा, फिर भी यह दशा! एक रोज़ लाना गद्दी पर चार गिन्नियाँ फेककर चले गए थे। दूकान में उस समय मैं ही था, और कोई न था। मैं चाहता, तो चारों गिन्नियाँ सान घोट जाता । पर भैया, हमें तो भगवान् को मुँह दिखाना है, चार गिनी कितने दिन ग्लाते ? हमने तुरंत चारों गिन्नियाँ ले जाकर दे दी । बढ़े प्रसन्न हुए, एक रुपया मिठाई खाने को दिया; हमने चुपचाप ले लिया । अव जो पाता है, उसी ले कहते हैं, रामभजन बड़ा ईमान- दार प्रादमी है। तारीफों के पुल बाँध दिए । बताओ, इनकी तारीफ़ को शो या विछावें। यह नहीं होता कि कभी-कभी दस पाँच रुपए दे दें। यह भी न हुया कि दो-चार रुपए तनयाह में ही बढ़ा - - . देते । नौकर-ऐसी ही वाते देख-देखकर तो श्रादमी की नियत बिगड़ जाती है ! ईमानदारी करने से क्या फायदा ? इनके साथ तो बस,