पृष्ठ:चित्रशाला भाग 2.djvu/८५

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संतोप-धन . यही यर्ताव रक्खे कि जो मिले, सो अपने बाप का, पाभी रियायत न करे । तुम तो महाराज पोंगा हो। मैं होता, तो गिनियाँ कभी न लौटाता। उनकी ऐसी-तैसी। काहे को लौटावें? जब हमारी मेहनत शौर ईमानदारी की कोई कदर ही नहीं, तब का फो ईमानदारी फरें। अाजकल वह समय है कि सोना-तुलसी मुंह में रखकर काम करना बढ़ा गधापन है, ऐसे श्रादमी भूखों ही मरा करते हैं । ये नाना भाई तो इस काबिल है कि जी तक हो, इनके चूना ही लगावे । हाँ, अपने हाथ-पैर बचाकर काम करे । रामभजन-यह तो तुम्हारा कहना ठीक है; पर भैया, भगवान् को डरते है ! लाला का क्या: बिगड़ेगा ? उनको समाई है। उनके सौ-पचास चले जायेंगे, तो कुछ न होगा ; पर अपना परलोक विगढ़ जायगा। नौकर-थरे यहाँ का परलोफ! तुम भी वही बाम्हनपने की बातें करने लगे। पहले यह लोक संभालो, फिर परलोक की सोचना । रामभजन-अरे भई, सोचना ही पड़ता है । उस जन्म पाप किए हैं, सो इस जन्म में भोग रहे हैं; अब इस जन्म में पाप करके अगला जन्म क्यों बिगाड़ें ? नौकर-इसी से तो कहा है कि बाम्हन साठ बरस तक पोंगा रहता है। बाम्हन को कभी बुद्धि नहीं पाती, यह मानी हुई बात है। रामभजन-चलो, हम बुद्धिहीन ही भले हैं। भैया, हमसे वो दगाबाजी कभी नहीं हो सकती। नौकर-दगाबाजी हो कैसे, बड़े घर का जो दर लगा है। बड़े घर का डर न हो, फिर ईमानदार बने रहो, तो जानें कि बढ़े ईमानदार हो। रामभजन-वह चार गिन्नियाँ मैं ले लेता, तो मुझे कौन फाँसी .