पृष्ठ:चोखे चौपदे.djvu/११४

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अन्योक्ति

और के हित है कतर देते तुझे।
और वह फल को कुतुर करके खिली॥
ठोर सूगे की तुझे कैसे कहें।
नाक जब न कठोर उतनी तू मिली॥

जो न उसके ढकोसले होते।
तो कभी तू न छिद गई होती॥
मान ले बात, कर न मनमानी।
मत पहन नाक मान हित मोती॥

सूंघने का कमाल होते भी।
काम अपने न कर सके पूरे॥
बस कुसँग में सुबास से न बसे।
नाक के मल भरे हुए पूरे॥

ताल में क्यों भरा न हो कीचड़।
पर वहीं है कमल-कली खिलती॥
नाक कब त रही न मलवाली।
है तुम्हीं से मगर महँक मिलती॥