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छाया
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वह स्वाभाविक तेज अब नहीं है, किन्तु एक स्वर्गीय तेज से वह कान्तिमयी थी । उसको उदारता पहले से भी बढ़ गयी। दीन और दुखी के साथ उसकी ऐसी सहानुभूति थी कि लोग उसे 'मूर्तिमती करुणा' मानते थे। उसकी इस चाल से पाषाण-हृदय औरंगजेब भी विचलित हुआ। उसकी स्वतंत्रता जो छीन ली गयी थी, उसे फिर मिली । पर अब स्वतंत्रता का उपभोग करने के लिये उसे अवकाश ही कहां था ? पिता की सेवा और दुखियों के प्रति सहानुभूति करने से उसे समय ही नहीं था। जिसकी सेवा के लिये सैकड़ों दासियां हाथ बांधकर खड़ी रहती थी, वह स्वयं दासी की तरह अपने पिता की सेवा करती हुई अपना जीवन व्यतीत करने लगी । वृद्ध शाहजहां के इंगित करने पर उसे उठाकर बैठाती और सहारा देकर कभी-कभी यमुना के तट तक उसे ले जाती और उसका मनोरंजन करती हुई छाया-सी बनी रहती।

बुद्ध शाहजहां ने इहलोक की लीला पूरी की। अब जहांनारा को संसार में कोई काम नहीं है। केवल इधर-उधर उसी महल में घूमना भी अच्छा नहीं मालूम होता । उसकी पूर्व स्मृति और भी उसे सताने लगी। धीरे-धीरे वह बहुत क्षीण हो गयी।बीमार पड़ी। पर, दवा कभी न पी। धीरे-धीरे उसकी बीमारी बहुत बढ़ी और उसकी दशा बहुत खराब हो गयी औरंगजेब ने सुना । अब उससे भी सहय न हो सका। वह जहांनारा के देखने के देखने के लिये गया।

एक पुराने पलँग पर, जीर्ण बिछौने पर, जहांनारा पड़ी थी और केवल एक धीमी सांस चल रही थी। औरंगजेब ने देखा कि वह वही जहांनारा है, जिसके लिये भारतवर्ष की कोई वस्तु अलभ्य नहीं थी,जिसके बीमार पड़ने पर शाहजहां भी व्यग्र हो जाता था और सैकड़ों हकीम उसे आरोग्य करने के लिये प्रस्तुत रहते थे । वह इस तरह एक कोने में पड़ी है !