पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/१२०

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(१२०) जगदिनोद । तैसोतन ताय ताय तारापतिता पतौ ॥ की योग वियोग तो सैंयोगहू न देतोदई, देनौ जो सँयोग तो वियोगहिन थापतौ । होतो जो न प्रथम सँयोग सुख वैसो वह, ऐसों अब जो न तो बियोग दुखव्यापतौ ॥४०॥ दोहा-सुनत सँदेश विदेश तजि, मिलते आय तुरंत ॥ समुझिपरतसुकन्तजहँ, तहँप्रकटयोनवसन्त ॥ ४३ ॥ इक वियोग शृगारमें, इती अवस्था थाप ॥ अभिलाषागुणकथनपुनि, पुनिउद्वेग प्रलाप ॥ ४२॥ चिन्तादिक जे पट कही, विरह अवस्था जानि । सञ्चारी भावन विषे, हौं आयहु जो बसानि ॥४३॥ ताते इत वर्णत न मैं, अभिलाषादिक चार । तिनके लक्षण लक्षिमब, हौं भाषत निरधार ॥४४॥ तिय अरुपियजो मिलनकी, करै विविधचितचाह । ताहीको अभिलाष कहि, वर्गत, कविनाह ॥ ४५ ॥ अभिलामाका उदाहरण ॥ कवित्त--ऐसी मतिहोत अब कैसी करौ आली वनमालीके शृंगारिबे शृंगारिबोई करिये । कहै पदमाकर समाज तजि काज तजि, लाजको जहाज तजि डारिबोई करिये ॥ घरी घरी पल पल छिन छिन रैन दिन, नैननकी आरती उतारिखोई करिये ।