पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/१२६

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(१२६) जगद्विनोद । भ्रकुटि भंग अति अरुणई अधर दशन अनुभाव । गर्व चपलता औरहू तहँ संचारीभाव ॥ ७३ । रक्तरंगरस रौद्रको, देवता जान ताको कहत उदाहरण, सुनहु सुमति दैकान ॥७४॥ अथ रौद्ररस वर्णन ॥ कवित्त-चारि टारि डारौं कुम्भकर्णहिं निदारि डारौ; मारौं मेवनादै आजु यों बल अनन्तहौं । कहै पदमाकर त्रिकूटहीको ढाहि डारौं, डारत करेई यातुधाननको अन्तहौं । अच्छहि निरच्छकपि रुच्छदै उचारौं इमि, तोणतिच्छ तुच्छ नको कछु व न गन्तहौं । जारि डारौं लंकहि उजारि डारौं उपवन, फारिडारौं रावणको तौं मैं हनुमन्तहौं॥७॥ दोहा-अधर चन्ध गहि गन्ध अति, चहिरावणको काल दृग कराल मुख लाल करि, दौरेउ दशरथ लाल जाको रस उत्साह शुभ, है इक थायी भाव । सुरस बीरहै चारि विधि, कहत सबै कविराव ७७ : युद्ध बीर इक नामहै, दया बीर बियनाम । दीन बीर तीजी सुपुनि, धर्मबीर अभिराम ॥७८॥ युद्ध वीरको जानिये, आलंबन रिपु जोर । उद्दीपन ताको तबहिं. पुनि सैनाको भोर ॥ ७९ ॥ अंग फरका दृग अरुगई, इस्यादिक अनुभाव । 7