पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/१२७

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जगद्विनोद । ( १२७) मवे असूया उग्रता, तहँ संचारी नाव ॥ ८०। इन्द्र देवता वीरको, कुन्दन वर्ण विशाल । ताको कहतउदाहरण, मुनिजन होतखुशाल ॥८॥ अथ वीररस वर्णन ॥ कविन-सो है अत्र ओढ़े जे न छोड़े शीश संगरकी, लंगर लँगूर उच्च ओजके अतंकामें । कहै पदमाकर त्यों हुंकरत फुकरत, फलत फलात भाल बांधत फलंकामें । आगे रघुबीरके समीरके तनय सङ्ग, तारीदे तड़ाक तड़ा तड़के तमंकामें । शंकादै दशाननको हंकादै सुबंकाबीर, डंकादै विजयको कपिकूदि परयो लंकामें ॥८२॥ पुनर्यथा ॥ कवित्त--जाही ओर शोरपरै घोरवन ताही ओर, जोर जंग जालिमको जाहिर दिखात है । कहै पदमाकर अरीनकी अवाई पर, ललाई लहरात है ॥ परिघ प्रचंड चमू हरषित हाथी पर, देखत बनत सिंह माधवको गात है। उद्धत प्रसिद्ध युद्ध जीतिही के सौदाहित, रौदा ठनकारि तन हौदा न समान है ॥ ८३ ॥ दोहा-धनुष चढ़ावत भे तबहिं, लखिरिपुरुत उत्पात ॥ साहब सवाईको