जगद्विनोद । (३१) औचकही आइ अलसाइ प्रेम पागेयों ॥ झपकोहैपलनी पियाके पीक लोक लखि, झुकि झहराइहू न नेकु अनुरागै त्यों। वैसेही मयंकमुखी लागत न अंकहुती, देखिकै कलंक अब येरी अंकलागैक्यों ॥ ५७ ॥ दोहा-बिनगुन माल गोपाल उर, क्यों पहिरी परभाव । चकित चित्त चुप हेरही, निरखि अनोखीबात ॥ मध्यावंडिताका उदाहरण ।। कवित्त-ख्याल मनभायो कहूं करिकै गोपाल घरै, आये अतिआलस मटेई बड़े तरकै । कहै पदमाकर निहारी गजगामिनिके, गज मुकतानिके हिये पै हार दरकै ॥ येते पै न आनन है निकसे बधूके बैन, अधर उराहने तुदीबेकाज फरकै । कंधनते कंचुकी भुजानिते सु बाजूबन्द, पौचनते कंकन हरेही हरे सरकै ॥ ५९ ॥ दोहा--रसिकराज आलस भरे, खरे हगनकी ओर । कछुक कोप आदर न कछु, करत भावती भोर ॥ अथ प्रौढाखंडिताका उदाहरण।। कवित्त--खाये पान बीरासी विलोचन विराजै आज, अंजन अँजाये अध अधरा अमीके हैं। कहै पदमाकर गोविंद देखौ आरसी लै,
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