जगदिनोद। (४५) दोहा--आधे आये दृगनिरति, आधे दृगनि सुलाज । राधे आधे वचनकहि, सुवशकिये बजराज ॥ १९ ॥ अथ प्रौढा स्वाधीनपतिका उदाहरण--सवैया ॥ मोमुखबीर दईसुदई सुरहीरचिसाधिसुगन्धि घनेरो । त्यों पदमाकर केसरिरवोरिकरीतोकरीसोसुहागहैमेरो ॥ देनीगुहीतो गुही मनभावने मोतिन मांग संवारिसबेरो। और श्रृंगार सजे तो सजो इकहारहहाहियरेमतिगेरो॥ दोहा--अंगराग औरै अँगनि, करत कछू वरजीन ॥ पै मेंहदी न दिवायहौं, तुमसों पगन प्रवीन ॥२१॥ अथ परकीया स्वाधीनपतिका उदाहरण ॥ कवित्त-उझकि झरोखाडै झमकि झुकि झांकी वाम, श्याम की बिसारंगई खबार तमाशाकी । कहै पदमाकर चहूंघा चैत चांदनीसी, फैलिरही तैसिये सुगन्ध शुभ श्वासाकी ॥ तैसी छबि तकत तमोरकी तरयोननकी, वैसी छबि बसनकी बारनकी वासाकी । मोतिनकी मांगकी मुखौकी मुसक्यानहूँकी, नथकी निहारबेकी नैननकी नासाकी ॥२२॥ पुनर्वथा ॥ कावत--ईशकी दुहाई शीशफूलते लरकि कट, लटते लटफिल्ट कन्धपै ठहारंगो।
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