पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/४६

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. जगद्विनोद । पदमाकर सुमन्दचलि कन्धहूते; भूमि भ्रमि भाईसी भुजामें त्यों भभरिगो । भाईसी भुजाते भ्रमि आयो गोरी गोरी गोरी, बांइते चपरि चलि चुनार में अरिंगो । हरेउ हरै हरै हरी चुनार ते चाहो जौलौं, नोलौं मनमेरो दौरि तेरे हाथ परिगो ॥ २३॥ दोहा-मैं तरुणी तुम तरुण तनु, चुगुल चबाई गांव । मुरली न बजाइयो, कबहुं हमारो नांव ॥२४॥ गणिकास्वाधीन पतिका सवैया ॥ छाकछकीछतियांधरकै दरकै अगिया उचके कुचनीके। त्यों पदमाकर छूटत वारहूं टूटतहार शृगार जेहीके । संग तिहारे न झूलहुंगी फिर रंगहिंडोरे सुजीवनजीके ॥ योंमिचकीमचकौनहहालचकैकरहामचकै मिचकीके ॥२५॥ दोहा--या जगमें धनि धन्य तू, सहज सलोने गात । धरणीधर जो वशकियो, कहा ओरकी बात ॥२६॥ अथ अभिसारिका लक्षणम् ॥ दोहा--बोलि पठावै पियहिकै, पियपै आपुहि जाय । ताहीको अभिसारिका, वर्णत कवि समुदाय ॥ २७ ॥ अथ मुग्धा अभिसारिकाका उदाहरण- सवैया ॥ किंकिनी छोरि छपाईकहूंकहूंबाजनीपापलपांयतेनाई। त्यों पदमाकर पातहुकेखरकैकहुंकोपि उठै छबिछाई ॥ लाजहितेगडिजातकहूंअडिजात कहूंगजको गति भाई ।