(६२) जगद्विनोद । व्याकुल होइ जो विरहवश, बसि बिदेशमें कन्त । ताहीसों प्रोषित कहत, जे कोविद बुधिवन्त ॥१३॥ प्रोषितका उदाहरण ॥ कवित--साँझ के सलोने घन सबुज सुगन सों, कैसे तो अनंग अङ्ग अङ्गनि सतावतो । कहै पदमाकर झकोर झिल्ली शोरनको, मोरनको महत न कोऊ मनल्यावतो ॥ काहूबिरहीकी कही मानि लेतौ जोपै दई, जगमें दई तौ दयासागर कहावतो। येरी बिधि बौरी गुणसार घनोहोतो जोपै, बिरह बनायो तौ न पावस बनावतो ॥ १४ ॥ दोहा--तजि विदेश सजिवैसही, निज निकेतमें जाय ॥ करसमेटिभुजभेंटवी, भामिनिहियेलगाय ॥ १५ ॥ फिरिफिरि शोचतिपथिकयह, मेरोनिरखिसनेह । तज्यीगेहनिजगेहपति, त्यांनतजैकहँदेह ॥ १६ बिकल बटोही बिरहवश, यहै रहो चित चाहि । मिलजुकहुँपारसपरयो, मुरकिमिलौंतौवाहि ॥ १७ ॥ बूझै जो न तियानके, ठाने विविध बिलास । सुअनभिज्ञनायककह्यो, वहैनायिकाभास ॥ १८॥ अनभिज्ञनायिका॥ कवित--नैननहीं सैन करै वीरी मुख दैन करै,
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