पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/८०

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o (८०) जगद्विमोद। हर्षहिते कै कोपते, के भ्रम भपते गाव । थरथरात तातों कहत, कम्प सुमति सरसात॥१९॥ अथ कम्प-सवैया ॥ साजिशृंगारनि सेजपै पार भई मिसही मिसओट जिठानी। त्यों पदमाकर आयगो कन्तइकन्तजबैनिजतन्तमें जानी ॥ प्योल खिसुन्दर सुन्दरसेजते योरसकी थिरकी थहरानी। बातके लागे नहीं ठहरातहै ज्योंजलजातपातपैपानीर दोहा-थरथरात उर कर कँपत, फरकत अधर सुरंग । करकि पीउ पलक निप्रकट, पीक लीकको ढंग ॥ मोहितते के क्रोधते, के भयहीते जान । बरण होत जहँ और विधि, सो बैवर्ण्यबखान ॥२२॥ सवैया ॥ सापनेहूनलख्यो निशिमें रतिभौनते गौनकहूं निजपीको । त्यों पदमाकर सौतिसंयोगन रागभयो अनभावतीजीको । हारनसों हहरातहियो मुकुता सियरात सुबेसरही को। भावतेकेउरलागी जऊ तऊ भावतीकोमुख द्वैगयोफीको ॥ दोहा-कहि न सकत कछु लाजते, अकथ आपनीवात । ज्यों ज्यो निशि नियरातहै, त्योत्यों तियपिय रात । हर्ष रोप अरु शोक भय, धूमादिक्ते होत । प्रकम्नीर अँखियानमें, अश्रु कहत कविगोत ॥ अश्रुका उदाहरण ॥ कवित--भेद बिनजाने एवी वेदन विसाहिवे को,