(८२) जगदिनोद । पौकभरीपलक झलकैंअलक झलकै छबिछूटि छटालिये ॥ सोमुखभाषिसकै अबको रिसकै कमकै मसकै छतियाछिये । रातिकी जागी प्रभात उठी अँगरात भात लजात लगीहिये। दोहा-दरदर दौरति सदन द्युति, सम सुगन्ध सरसाति । लखत क्यों न आलस भरी, परी तिया जमुहाति ॥ इति साविकभाव वर्णनम् ॥ दोहा--अनुभावहि में जानिये, लीलादिक जे हाव ।। ते सँयोग शृङ्गारमें, वर्गत सब कविराव ॥ ३४ ॥ हावलक्षण ॥ दोहा--प्रगट सभाव तियानके, निज शृङ्गारके काज । हाव जानिये ते सबै, यों भाषत कविराज ॥३५॥ लीला प्रथम दिलाम तिय, पुनि विक्षिप्त बखान । विभ्रम किल किंचित बहुरि, मोट्टाइतपुनि जान ॥ बिनो कहुपुनि विहृत गनि, बहुरि कुट्टमित गाव । रस बन्धनमें ये दशहु, हाव कहत कविराव ॥३७॥ पिय तियको तिय पीउको, धरै जु भूषण चीर । लीलाहाव बखानहीं, ताहीको कवि चौर ॥ ३८ ॥ अथ लीलाहावका उदाहरण ॥ कवित-सप रचि गोपीको गोविन्द गौवहाँई जहाँ कान्ह बनि बैठी कोऊ गोपको कुमारी है । कहै पदमाकर या उलट कहै को कहाँ, कमकै कन्हैया कर ममकै जु बारी है ।
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