जगद्विनोद। (८७) अथ विहृत हावका उदाहरण ॥ सवैया ।। सुन्दरीको मणिमन्दिरमें लखि आये गोविन्द बनैबड़भागे। आननओपधाकर सो पदमाकरजीवनज्योतिके जागे ॥ औचक ऐचत अञ्चलके पुलकी अँगअङ्ग हियो अनुरागे। मैनके राजमें बोलिसकी न भटूबजराजसों लाजके आगे ॥ दोहा-यह न बात आछी कछू, लहि यौवन परगास । लाजहिते चुप है रहति, जो तू पियके पास ॥६६॥ तन मर्दति पियके तिया, दरशावत झुठरोष । याहि कुट्टमित कहत हैं, भाव सुकवि निर्दोष ॥६७॥ अथ कुट्टमित वर्णन। कवित्त -अञ्चलके ऐंचे चल करती हगंचलवी, चञ्चलाते चंचल चलैन भजिद्वारेको । कहै पदमाकर परैसो चौक चुम्बन में, छलनि छपावै कुच कुंभनि किनारेको ।। छातीके छिपे पै ‘परी रातीसी "रिसान, गल-बाँहीं किये करै नाहिं नाहिं पै उपचारेको । होकरत शीतल तमासे तुंगती करत, सीकरति रतिमें वशीकरति प्यारेको ॥ ६८॥ दोहा--कर ऐचत आवत :ची, निय आपहि पियओर । झुठिहुँ रूसिरहै छिनक, छुवत छराको छोर ॥६॥ दैजुडिठाई नाहसँग, प्रकटै विविध विलास । कहत ग्यारहें हावसो, हेला नाम प्रकास ॥ ७ ॥
पृष्ठ:जगद्विनोद.djvu/८७
दिखावट