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पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/१०३

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जनमेजय का नाग-यज्ञ

प्रमदा―अरी वाह! मै क्यो तेरा काम करने लगी!

कलिका―मैं तेरे पैरों पड़ती हूँ। बहन! इस समय तो मैं किसी काम की नहीं हूँ।

प्रमदा―क्या तूने कुछ माध्वी पी ली है? कल तो अच्छी भली थी।

कलिका―नहीं बहन, मै गौड़ो या माध्वी कुछ नही पीती। अच्छा तू न करेगी, तो मैं ही चलती हूँ।

[ रोनी सूरत वनाती है ]

प्रमदा―नहीं, मै तो हँसी करती थी। जा, जब तेरा जी चाहे, तब आइओ। मै जाती हूँ।

[प्रमदा जाती है। सरमा किती को आते देखकर छिप जाती है ]
[ इधर उधर देखता हुआ काश्यप आता है। ]

काश्यप―सन्ध्या हो चली है। आकाश ने धूसर अन्धकार का कम्बल तान दिया है। यह गोधूलि आँखो मे धूलि झोककर काम करने का अभय दान दे रही है। आङ्गिरस काश्यप की प्रति- हिसा का फल, उसे अपमानित करके, पुरोहिती छीनकर, शौनक को आचार्य बनाने की मूर्खता का दण्ड आज मिलेगा। ब्राह्मण! आज वह शक्ति दिखला दे कि तुझ मे 'शापादपि शरादपि' दोनो प्रकार से दण्ड देने का अधिकार है। ओह, इतनी पुष्कल दक्षिणा! ऐसे महत्व का पद! मुझसे सब छीन लिया गया! रोएगा, जनमेजय, तू आठ आठ ऑसू रोएगा! तेरे हृदय को क्षत विक्षत करके, तेरी आत्मा को ठोकर लगाकर, मैं दिखला दूँँगा कि