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पृष्ठ:जनमेजय का नागयज्ञ.djvu/१०४

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तीसरा अङ्क―चौथा दृश्य

ब्राह्मण को अपमानित करने का क्या फल है!-अभी नहीं आया?

[ तक्षक का छिपते हुए प्रवेश ]
 

तक्षक―कौन है?

काश्यप―मैं, आङ्गिरस। तुम कौन?

तक्षक―नाग।

काश्यप―प्रस्तुन होकर आए हो?

तक्षक―तुम अपनी कहो।

काश्यप―मैंने सब ठीक कर दिया है। अश्व पूजन मे जाने वाले सब ब्राह्मण हमारे हैं। वहाँ थोड़ी सी स्त्रियाँ ही रहेगी। उनसे तो तुम नहीं डरते न?

तक्षक―मेरे केवल पचीस ही साथी आ सके है।

काश्यप―इतने से काम हो जायगा। यज्ञ का अश्व तुम ले भागना, और यदि हो सके, तो महिषी को भी―।

तक्षक―( चोंककर ) क्यो, उसका क्या काम है?

काश्यप―बताऊँँगा। इस समय जाओ, सावधानी से काम करना। थोड़े से रक्षक रहेगे, वे भी सोम पान करके झूमते हुए मिलेंगे। तुम्हें कोई डर नहीं है। जाओ अव समय हो गया। यदि चूकोगे तो फिर ठिकाना न लगेगा। घात में लग जाओ। सरमा भी यहीं है, वह तुम्हारा काम करेगी।

तक्षक―अच्छा, जाता हूँ। किन्तु काश्यप, अब को अन्तिम दाँव है। यदि अब की सफलता न हुई तो फिर तुम्हारी कोई बात न मानूँँगा।

[ तक्षक जाता है ]